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________________ यह जरूर मैं तुमसे कहना चाहता हूं। और गलत प्रश्न लेकर चलना मत, अन्यथा पूरी यात्रा गलत हो जायेगी। इधर हम कुछ और ही बात कह रहे हैं । इतनी-सी बात कह रहे हैं कि परमात्मा ही है और तुम नहीं हो। अब तुम पूछते हो कि हम नहीं कैसे हो जायें? मैं कह रहा हूं कि तुम हो ही नहीं, तुम कभी थे ही नहीं; तुमने कुछ सपना देख लिया है, तुम किसी भ्रम में पड़ गये हो । झेन फकीर बोकोजू एक रात सोया, उसने सपना देखा नहीं देखा, पता नहीं, कहानी यह है कि सुबह उठकर उसने अपने एक शिष्य से कहा कि सुनो जी, रात मैंने एक सपना देखा है, व्याख्या करोगे ? शिष्य ने कहा रुकें, मैं जल ले आऊं, आप जरा हाथ मुंह धो लें। वह एक बालटी भरकर पानी ले आया, गुरु का हाथ-मुंह धुलवा दिया खूब रगड़-रगड़ कर । गुरु ने कहा, पूछता हूं सपने की व्याख्या, तू यह क्या कर रहा है? उसने कहा, यह सपने की व्याख्या है। सपना था ही नहीं, उसकी क्या खाक व्याख्या करनी है ! जो नहीं था, नहीं था । नहीं की कहीं कोई व्याख्या होती है ! गुरु बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, खुश हूं। अगर आज तूने व्याख्या की होती, तो कान पकड़कर तुझे बाहर निकाल दिया होता। तभी एक दूसरा शिष्य गुजर रहा था, उससे कहा कि सुनो जी, रात एक सपना देखा है, उसकी व्याख्या करोगे? उसने हाल-चाल देखे – पानी रखा है, धोया गया है; उसने कहा, रुकें, मैं जरा एक कप चाय ले आता हूं, आप चाय पी लें। वह एक कप चाय ले आया। गुरु चाय पीने लगा, उसने क़हा, यह क्या व्याख्या हुई ! शिष्य ने कहा, अब हाथ-मुंह धो लिया, अब चाय पी लें, जागें, सुबह हो गई, सपना समाप्त हुआ । रात की बातें सुबह कोई पूछता ! पूछने में सार क्या है ! आप भी जानते हैं, नहीं था; सपना खुद ही कह रहे हैं । सत्य की व्याख्या हो सकती है, सपने की क्या कोई व्याख्या होती है ! तुमने एक सपना देखा है कि तुम अलग हो, अब तुम पूछते हो, उससे एक कैसे हो जायें? मैं कहूंगा, जागो, जरा हाथ-मुंह धोओ, चाय पी लो। तुम अलग कभी हुए नहीं, एक भ्रम पोसा है। और जब मैं तुमसे यह कहता हूं कि सभी निर्णय उसके हैं, तो समझना, यही क्रांति मैं तुम्हारे जीवन में प्रविष्ट कराना चाहता हूं। तुम्हारे पास साधु-संत हैं जो तुमसे कहते हैं, अच्छी-अच्छी बातें उसकी हैं, बुरी - बुरी तुम्हारी हैं। यह भी क्या कंजूसी ! जब दिया तो पूरा ही दे दो। और तुम थोड़ा सोचो, जब बुरी - बुरी तुम्हारी हैं, तो अच्छी-अच्छी तुम कैसे दे पाओगे ? साधु-संत कहते हैं, बुरी-बुरी तुम्हारी, अच्छी-अच्छी उसकी। तुम मन-ही-मन में उल्टा सोचते हो। तुम सोचते हो, अच्छी-अच्छी अपनी, बुरी - बुरी उसकी। यह जो तुम्हारे भीतर चलता है हिसाब-किताब, यह हिसाब-किताब तोड़ो, एकतरफा तोड़ो, एक दफा तोड़ो। और एक ही चोट में तोड़ो। यह भी क्या हिसाब ! और जब तुम सोचते हो कि बुरी मेरी, तो भली उसकी कैसे हो सकती है? तुम सोचते हो चोरी तुम्हारी और दान उसका ! असंभव ! यह तो गणित की बात न रही फिर । जब चोरी तुम्हारी, तो दान भी तुम्हारा, यही तुम समझोगे । और तुम्हारा अहंकार तुम्हें यह समझायेगा कि चोरी तो मजबूरी में कर ली, भाग्य ने करा दी, परिस्थिति ने करा दी, दान मैंने किया है। तो चोरी तो तुम किसी पीछे के रास्ते से उसी पर छोड़ दोगे - परिस्थिति, भाग्य; पत्नी बीमार थी, दवा न थी घर में, इसलिए चोरी करनी पड़ी। दिल का देवालय साफ करो 245
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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