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________________ वह भी घर में है, वह भी भीतर है। मैं उसकी आंखों में देख रहा हूं। अब उसकी सुध-बुध नहीं है उसे। अब ये सारी बातें कि घर की तैयारी करनी, भोजन बनाना, लोग आते होंगे, यह करना, सब्जी काटनी, बिस्तर लगाने, ये सब बातें उससे न हो सकेंगी। ___ यह जो जीसस के जीवन में उल्लेख है...और जीसस ने कहा, तू उसे छोड़। तू तैयारी कर। जो तुझे ठीक लगता है, तू कर। जो उसे ठीक लग रहा है उसे करने दे। तुम अपने-अपने हिसाब से जीयो। ये मैरी और मार्था परमात्मा की तरफ दो दृष्टिकोण हैं। एक तो है, हम बाहर उलझे हैं, तैयारी कर रहे हैं, कामधाम में लगे हैं। वह तैयारी भी परमात्मा से ही मिलने की तैयारी है। वह भी मेहमान के लिए ही हो रही है। लेकिन तैयारी में इतने व्यस्त हो गये हैं कि मेहमान ही भूल गया। वह मार्था आकर बैठी ही नहीं जीसस के पास। वह काम में ही उलझी रही। वह मेहमान का स्वागत तो करती रही लेकिन मेहमान से वंचित रही। जीसस घर में आये और चले गये, और मार्था सूखी की सूखी रही। मैरी भर गई। उसने पी लिया। उसने पूरा रस पी लिया। 'पिया अंदर महल विराज रहे घर-काजन मैं अटकाय रही नहीं एक घड़ी-पल संग किया बिरथा सब बीत गई रतिया' और भक्त कहता है कि मैं जानता हूं कि तुम भीतर ही बैठे हो और मैं बाहर उलझा हूं। व्यर्थ है मेरा यह सारा उलझना। तुमसे संग-साथ कर लिया होता तो यह रात सुहागरात हो गई होती। लेकिन यह रात अंधकारपूर्ण हो गई, विषाद की हो गई, संताप की हो गई। इस रात में केवल दुखस्वप्न देखे। और तुम घर में ही विराजे थे। एक दिन पछताता है भक्त। प्रेमी पछताता है। इस पछतावे का ही उल्लेख है। 'पिया सोवत ऊंची अटारिन में जहां जीव परीत की गम ही नहीं किस मारग होय के जाय मिलूं किस भांति बनाय लिखू पतिया' भक्त पूछता है, ऊंची अटारी पर प्रभु का वास है, बड़े ऊंचे आयाम में। 'जहां जीव परीत की गम ही नहीं' जहां जाने का जीव को कोई रास्ता नहीं सूझता। जीव जा भी नहीं सकता उस ऊंचाई पर। जीव रहता ही नीचाई पर है। उस ऊंचाई पर जाना हो तो जीव को छोड़ देना पड़ता। वह त्याग जरूरी है। जीव यानी मैं-भाव। मैं-भाव में बंध गया परमात्मा ही जीव कहलाता। परिभाषित परमात्मा जीव। आंगन में बंध गया आकाश जीव। दीवाल में घिर गया सूरज का प्रकाश जीव। नहीं, जीव तो जा नहीं सकता। परिधि तोड़नी पड़ेगी। घड़े को फोड़ना पड़ेगा ताकि घड़े के भीतर का आकाश बाहर के आकाश से मिल जाये। जीव ही बाधा है। इसलिए कहा कि जीव परीत की गम ही नहीं। कोई रास्ता नहीं मिलता जीव को, कोई उपाय नहीं। 'किस मारग होय के जाय मिलूं मन तो मौसम-सा चंचल 209
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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