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________________ आखिरी प्रश्न : हे री सखि बतलाओ मुझे पी की मनभावन की बतिया गुणहीन मलिन शरीर मेरा कुछ हार - सिंगार किया ही नहीं नहीं जानूं मैं प्रेम की बात कोई मेरी कांपत है डर से छतिया पिया अंदर महल विराज रहे घर - काजन मैं अटकाय रही नहीं एक घड़ी - पल संग किया बिरथा सब बीत गई रतिया पिया सोवत ऊंची अटारिन में जहां जीव परीत की गम ही नहीं किस मारग होय के जाय मिलूं किस भांति बनाये लिखूं पतिया मैं इस भजन के साथ खो जाता हूं। कृपा कर मुझे इसका भावार्थ समझायें । 'हे री सखि बतलाओ मुझे पी की मनभावन की बतिया । ' खो जाने में ही भावार्थ है। समझने की बात नहीं है, खो जाने की ही बात है । समझोगे तो अर्थ खो जायेगा। समझो ही मत । डूबो । मन तो मौसम सा चंचल जिसने पूछा है, विचार की जगह भावपूर्ण व्यक्ति हैं। जिसने पूछा है, ध्यान की जगह भजन उनके लिए मार्ग होगा। डुबकी लगाओ। समझ इत्यादि की बकवास छोड़ो। जिसको डूबना आता हो वह फिक्र छोड़ सकता है समझने की। जिसको डूबना न आता हो वह समझे। क्योंकि फिर वह समझ - समझकर ही डूब सकेगा; वह इंच-इंच बढ़ेगा । इसका अर्थ मत पूछो। लेकिन इसका सार समझने जैसा है। प्रेमी सदा यही पूछ रहा है; एक ही बात पूछ रहा है कि उस प्रिय की कुछ खबर दो, कहां है? कहां छिपा है? कहां खोजें? उसका पता क्या है ? उसके संबंध में कुछ बात करो । सत्संग का यही अर्थ होता है : जहां उस परमप्रिय की बात चलती हो। जहां बैठकर चार दीवाने उस परमप्रिय के गीत गाते हों, स्तुति करते हों। जहां चार दीवाने मिल बैठते हों वहीं मंदिर बन जाता है। जहां चार दीवाने परमात्मा की चर्चा करते हों वहीं शास्त्र जन्मने लगते हैं। मंदिर ईंट-पत्थर के मकानों में नहीं है, मंदिर तो वहां है जहां चार पागल बैठकर प्रभु की चर्चा करते हैं, आंसू बहाते हैं। 'हेरी सखि बतलाओ मुझे पी की मनभावन की बतिया गुणहीन मलिन शरीर मेरा कुछ हार - सिंगार किया ही नहीं' और प्रेमी को तो सदा ऐसा लगता है कि मैं अपात्र हूं। क्या तो गुण है मेरा ? स्वच्छ भी नहीं हूं, बड़ा मलिन हूं। प्रेमी का कोई अहंकार तो नहीं होता । अहंकार तो पंडित का, ज्ञानी का होता है। वह कहता है इतने शास्त्र जानता हूं, इतनी पूजा की, इतना पाठ किया, इतने मंत्रजाप किये, इतनी माला फेरी, वह हिसाब रखता है। भक्त तो कहता है, मैंने कुछ भी नहीं किया । 207
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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