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________________ से लौटें ? बड़ी जद्दोजहद करके तो चढ़े, अब उतरने में भी दिक्कत मालूम होती है कि लोग कहेंगे, अरे! इतनी मेहनत से गये थे, अब क्या मामला है ? यह भी स्वीकार करने का मन नहीं होता कि हम मूढ़ थे, अज्ञानी थे, इसलिए पद की आकांक्षा की। रस है कहां? रस तुमने जाना ? उपनिषद कहते हैं: 'रसो वै सः ।' प्रभु का स्वभाव रसपूर्ण है। र ही वह है। रस उसका दूसरा नाम है। और तुम कहते हो, रस तो अंधा बनाता है। नहीं, रस तो हृदय भी आंखें खोल देता है। रस हो तब ! रस तो मिलता ही तब है जब मन चला जाता है। मन कहां रस पैदा होने देगा ? मन तो हर चीज को विरस कर रहा है। रस तो मिलता ही तब है जब ध्यान का पात्र तैयार हो जाता है। रस तो आंखवालों को ही मिलता है। रस अंधा नहीं बनाता, तुम अंधे हो इसलिए रस नहीं मिलता। आंख खोलो, रस ही रस है। रस का सागर भरा है। सब तरफ रस ही लहरें ले रहा है। इन वृक्षों की हरियाली में, चांद-तारों की रोशनी में, इन पक्षियों के कलरव में रस ही लहरें ले रहा है। रसो वै सः । नहीं, तुमने कुछ गलत बातें पकड़ रखी हैं। और जिनने तुम्हें समझाया है वे तुम जैसे ही अंधे हैं। न उन्हें रस मिला है, न तुम्हें रस मिला है। अंधे अंधों का नेतृत्व कर रहे हैं। 'अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत ।' मगर अंधे भी क्या करें? किसी न किसी का हाथ पकड़ लेते हैं। मैंने सुना, एक अंधी स्त्री न्यूयॉर्क के एक रास्ते पर रास्ता पार करने के लिए खड़ी थी । प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई आ जाये और राह पार करवा दे। तभी किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। और जिसने कंधे पर हाथ रखा उसने कहा, क्या हम दोनों साथ-साथ रास्ता पार कर सकते हैं? उस स्त्री ने कहा, मैं प्रतीक्षा ही कर रही थी । आओ । दोनों ने हाथ में हाथ डाला और पार हुए। जब उस तरफ पहुंच गये तो स्त्री ने कहा, बहुत - बहुत धन्यवाद कि आपने मुझे रास्ता पार करवाया । वह आदमी घबड़ाया। उसने कहा, क्या मतलब ?धन्यवाद तो मुझे देना चाहिए। मैं अंधा हूं, रास्ता तो तुमने मुझे पार करवाया। तब तो दोनों घबड़ा गये, पसीना आ गया। रास्ता तो पार हो गये थे, लेकिन तब पता चला, दोनों अंधे थे। अंधों को पता भी कैसे चले कि हम किसी अंधे के पीछे चल रहे हैं? कतारें लगी हैं। क्यू लगे हुए हैं। तुम अपने आगेवाले को पकड़े हो, आगेवाला अपने आगेवाले को पकड़े हुए है। सबसे आगे कोई महाअंधा महात्मा की तरह चल रहा है। चले जा रहे हैं । न तुम्हें पता है, न तुम्हारे आगेवाले को पता है। मुल्ला नसरुद्दीन नमाज पढ़ने गया था। होगा ईद का उत्सव या कोई धार्मिक त्यौहार। हजारों लोग नमाज पढ़ रहे थे । उसकी कमीज उसके पाजामा में उलझी थी। तो पीछेवाले आदमी को जरा अच्छा नहीं लगा तो उसने झटका देकर कमीज को ठीक कर दिया। उसने सोचा कि मामला कुछ है। उसने सामनेवाले आदमी को ... । उसकी कमीज में झटका दिया। उस आदमी ने पूछा, क्या बात है ? झटका क्यों देते हो? उसने कहा, भाई मेरे पीछेवाले से पूछो। मैं तो समझा कि रिवाज होगा। इस मस्जिद में पहले कभी आया नहीं। हम कर रहे हैं एक-दूसरे का अनुकरण | रस तो पाया कहां है ? रस से तो तुम्हारी पहचान कहां हुई है ? रस मिले तो प्रभु मिले। रस पा लिया तो सब पा लिया। 194 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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