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________________ समझो। हठपूर्वक अगर तुम चित्त का निरोध करोगे तो निरोध करेगा कौन? वही चित्त। मन ही तो मन से लड़ता, और चित्त ही तो चित्त का निरोध करता। चित्त के ही द्वारा तो तुम चित्त से लड़ोगे। तुम वेश्या के घर जा रहे, तुम जबर्दस्ती अपने को मंदिर ले जाते। यह कौन है जो जबर्दस्ती तुम्हें मंदिर ले जा रहा है? यह भी मन है। वेश्या के घर जो जा रहा था वह भी मन था। मन भीड़ है बहुत-सी वासनाओं की। मन कोई एक नहीं है, मन अनेक है। उसी मन में यह भी वासना है कि वेश्या के घर जाऊं, उसी मन में यह भी वासना है कि मंदिर जाऊं। तुम जब मंदिर जाते हो तो तुम सोचते हो मन को जीता। नहीं, यह भी मन का ही एक अंग है। तुम जब वेश्या के घर जाते हो तो सोचते हो मन से हार गये। नहीं, यह भी मन की जीत है। मंदिर जाना भी मन की जीत है। दोनों में तुम्हारी हार है। तुम जो भी करोगे-कृत्य मात्र मन से होता है। सिर्फ अगर तुम्हें अपने में जाना हो तो एक ही उपाय है : कृत्य का अभाव। करो मत। करना न हो। न वेश्या की तरफ जाना हो और न मंदिर जाना हो; जाना ही न हो तो मन हार जाता है। मन को कृत्य चाहिए। कृत्य मन का भोजन है। कुछ करने को हो तो मन जीता है। फिल्मी गीत गाओ, मन को कोई अड़चन नहीं। भजन गुनगुनाओ, मन को कोई अड़चन नहीं। वह कहता है, चलो यही कर लेंगे। लेकिन कुछ कर लेंगे। तुम बैठकर 'राम-राम-राम-राम' जपो, चलेगा। गाली बको कि भजन, मन दोनों से अपने को भर लेगा। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आप कहते हैं, बस चुपचाप बैठ जाओ। कुछ आलंबन तो दें। कुछ सहारा तो चाहिए। ऐसे कैसे चुप बैठ जाओ? माला फेरें कि राम-राम जपें। गुरुमंत्र दे दें। कान फूंक दें, वे कहते हैं। कुछ लोग मुझसे संन्यास लेते हैं। वे संन्यास के बाद कहते हैं, और गुरुमंत्र? सहारा तो चाहिए। जब तक सहारा है तब तक मन रहेगा। सहारा मन को ही चाहिए। आत्मा को किसी सहारे की जरूरत नहीं है। मन लंगड़ा है; इसको बैसाखियां चाहिए। तुम बैसाखी किस रंग की चुनते हो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। मन को कुछ उपद्रव चाहिए, व्यस्तता चाहिए, आक्युपेशन चाहिए। किसी बात में उलझा रहे। माला ही फेरता रहे तो भी चलेगा। रुपयों की गिनती करता रहे तो भी चलेगा। काम से घिरा रहे तो भी चलेगा। रामनाम की चदरिया ओढ़ ले, राम-राम बैठकर गुनगुनाता रहे तो भी चलेगा। लेकिन कुछ काम चाहिए। कुछ कृत्य चाहिए। कोई भी कृत्य दे दो, हर कृत्य की नाव पर मन यात्रा करेगा और संसार में प्रवेश कर जायेगा। कृत्य की नाव मत दो; बस, मन गया। बैठे रहो। मन बहुत मांग करेगा, बहुत छीना-झपटी करेगा। सदा तुमने दिया है, आज अचानक न दोगे तो मन एकदम से नहीं चुप हो जायेगा। लेकिन तुम बैठे रहो। तुम कहो कि अब तय ही कर लिया। अब कृत्य नहीं करेंगे। कुछ भी नहीं करेंगे। एक घड़ी बैठे ही रहेंगे, लेटे ही रहेंगे, खाली रहेंगे। सो मत जाना, क्योंकि मन वही सुझाव देगा। वह कहता है तो फिर क्या पड़े खाली-खाली? सो ही जाओ। कम से कम इतना ही करो। ___ सोना भी कृत्य है। सोना भी क्रिया है। तो अगर कुछ नहीं कर रहे हो तो मन कहता है, अब ऐसे बैठे-बैठे क्या फायदा? चलो झपकी ले लो। इतना तो करो। झपकी ले लोगे तो.मन सपना देखने लगेगा। फिर काम शुरू हो गया। मन को काम चाहिए। 170 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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