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________________ मगर एक बार तुम सदगुरु के चक्कर में पड़ गये तो वह तुम्हें बिना नदी में झुकाये छोड़ेगा नहीं। और एक बार तुमने देख लिया कि जो बुद्ध में है, जो महावीर में है, जो सदगुरु में है, जो अष्टावक्र में है, कृष्ण में है, मोहम्मद में है, जीसस-जरथुस्त्र में है, वही तुममें है—गर्जना निकल जायेगी : 'अहं ब्रह्मास्मि।' मैं ब्रह्म हूं। गूंज उठेंगे पहाड़। कंप जायेंगे पहाड़। तुम भेड़ नहीं हो। भीड़ में हो इसलिए भेड़ मालूम पड़ रहे हो। भीड़ से उठो। भीड़ से जगो। भीड़ । ने तुम्हें खूब अभ्यास करवा दिया है। स्वभावतः भीड़ वही अभ्यास करवा सकती है, जो जानती है। भेड़ों का कसूर भी क्या? भेड़ों ने कुछ जानकर तो कुछ किया नहीं। जो जानती थीं वही सिंह के शावक को भी समझा दिया, करवा दिया। ___जो तुम्हारे मां-बाप जानते थे वही तुम्हें सिखा दिया। न वे जानते थे, न तुम जान पा रहे हो। जो उनके मां-बाप जानते थे, उन्हें सिखा गये थे कि पढ़ते रहना तोते की तरह राम-राम। तो वे भी पढ़ते रहे। वे तुम्हें सिखा गये हैं कि देख, कभी राम-राम मत चूकना; जरूर पढ़ लेना। रोज सुबह उठकर पढ़ लेना; कि सूरज को नमस्कार कर लेना; कि कुंभ मेला भरे तो हो आना। तो करोड़ भेड़ें इकट्ठी...। भीड़ वही तो सिखा सकती है, जो जानती है। भीड़ का कसूर भी क्या? 'अज्ञानी जैसे ब्रह्म होने की इच्छा करता है वैसे ही ब्रह्म नहीं हो पाता।' इस बात को समझो। यह भी अज्ञान है कि मैं इच्छा करूं कि मुझे ब्रह्म होना है, कि मुझे मुक्त होना है। इस इच्छा में ही एक बात सम्मिलित है कि तुम सोचते हो, तुम मुक्त नहीं हो। ____ थोड़ा सोचो। वह सिंह जो भेड़ों में खो गया था, पूछने लगता उस बूढ़े सिंह से कि मुझे भी सिंह होना है, रास्ता बताओ। और वह बता देता उसको रास्ता कि देख बेटा, सिर के बल खड़ा हआ कर, शीर्षासन किया कर, इससे धीरे-धीरे सिंह हो जायेगा। या रोज बैठकर अभ्यास किया कर, सोचा कर कि मैं सिंह हूं, मैं सिंह हूं। ऐसे धीरे-धीरे सोचने से, अभ्यास करने से, चिंतन-मनन-निदिध्यासन से । हो जायेगा। तो बात चूक जाती। वह सिंह अगर बैठ-बैठकर अभ्यास करता रहता, आसान-व्यायाम इत्यादि करता, और बार-बार सोचता और शास्त्र पढ़ता और दोहराता कि मैं सिंह हूं, और हिम्मत बांधता, तो झूठ अभ्यास होता। सिंह होने की जरूरत नहीं है, सिंह होने का बोध जगना चाहिए। अभ्यास नहीं. बोध। धन्यो विज्ञानमात्रेण। धन्य हैं वे, जो सुनकर जाग जाते हैं। जिन्होंने देखा चेहरा अपना दर्पण में और पहचाना। मूढ़ो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।। यह होने की आकांक्षा ही फिर न होने देगी। तम जो हो-होना नहीं है सिर्फ जागना है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति मैं उसको नहीं कहता, जो धार्मिक होना चाहता है। पाखंडी हो जायेगा। धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं जो उसे देख लेता है, जो है। जो होना चाहता है, यह बात ही गलत है। बिकमिंग, भवितुमिच्छति, कुछ होना, यह धार्मिक आदमी का लक्षण नहीं है; बीइंग, जो है, उसे जान लेना। होने की दौड़ संसार है और जो है, उसके प्रति जागना धर्म है। मूढो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति। 1224 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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