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________________ गया। वह तो छलांग लगाकर चली भी गई एक टीले से दूसरे टीले पर; बच्चा नीचे गिर गया। नीचे भेड़ों की एक कतार गुजरती थी। वह बच्चा भेड़ों में मिल गया। भेड़ों ने उसे पाला पोसा; बड़ा हुआ । सिंह था तो सिंह ही हुआ, लेकिन अभ्यासवश अपने को भेड़ मानने लगा। अभ्यास तो भेड़ का हुआ। भेड़ों के साथ था। भेड़ों के बीच ही पाया पहले दिन से ही । अन्यथा तो कोई सवाल ही न था। भेड़ों का ही मिमियाना देखकर खुद भी मिमियाना सीख गया । भेड़ों जैसा ही घसर-पसर चलने लगा भीड़ में। और सिंह तो अकेला चलता है। 'सिंहों के नहीं लेहड़े।' कोई सिंहों की भीड़ थोड़े होती है । भेड़ों की भीड़ होती है। भीड़ में तो वही चलते हैं, जो डरपोक हैं। भीड़ में चलते ही इसलिए हैं कि कायर हैं। डर लगता है, अगर मैं हिंदुओं की भीड़ से निकला तो क्या होगा; मुसलमानों की भीड़ से निकला तो क्या होगा? रहे आओ भीड़ में। कम से कम इतने लोग तो साथ हैं। बीस करोड़ हिंदू साथ हैं। हिम्मत रहती है। संन्यासी वही है, जो भीड़ के बाहर निकलता है। संन्यासी सिंह है । 'सिंहों के नहीं लेहड़े।' इसलिए संन्यासी की कोई जात नहीं होती। कबीर ने कहा है, संतों की जात मत पूछना । जात होती ही नहीं संत की कोई । जात तो कायरों की होती । संत की क्या जात ? भेड़ों में गिरा, भेड़ों में बड़ा हुआ । भेड़ों की भाषा सीख ली। भेड़ों की भाषा यानी भय । जरा-सी घबड़ाहट हो जाये, भेड़ें कंप जायें तो वह भी कंपे। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि एक सिंह ने भेड़ों पर हमला किया। वह सिंह तो देखकर चकित हो गया। वह तो हमला ही भूल गया, उसने जब भेड़ों के बीच में एक दूसरे सिंह को भागते देखा । और भेड़ें उसके साथ घसर-पसर जा रही हैं। वह सिंह तो भूल ही गया भेड़ों को । उसको तो यह समझ में ही नहीं आया कि यह चमत्कार क्या हो रहा है ! वह तो भागा । उसने भेड़ों की तो फिक्र छोड़ दी। बामुश्किल पकड़ पाया इस सिंह को। पकड़ा, तो सिंह मिमियाया, रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा। कहने लगा, छोड़ दो मुझे। मुझे जाने दो। मेरे सब संगी-साथी जा रहे हैं। उसने कहा, नालायक, सुन ! ये तेरे संगी-साथी नहीं हैं। तेरा दिमाग फिर गया ? तू पागल हो गया ? पर वह तो सुने ही नहीं। तो भी उस बूढ़े सिंह ने उसे घसीटा, जबर्दस्ती उसे ले गया नदी के किनारे । दोनों ने नदी में झांका। और उस बूढ़े सिंह ने कहा कि देख दर्पण में। देख नदी में । अपना चेहरा देख, मेरा चेहरा देख। पहचान ! फिर कुछ करना न पड़ा। बड़े डरते-डरते ... वह मजबूरी थी । अब यह मानता ही नहीं बूढ़ा सिंह । और ज्यादा झंझट करनी भी ठीक नहीं । उसने देखा । देखा, पाया, हम दोनों तो एक जैसे हैं। तो मैं भेड़ नहीं हूं ? एक क्षण में गर्जना हो गई। एक क्षण में ऐसी गर्जना उठी उसके भीतर से, जीवन भर की दबी हुई सिंह की गर्जना — सिंहनाद ! पहाड़ कंप गये । बूढ़ा सिंह भी कंप गया। उसने कहा, अरे ! इतने जोर से दहाड़ता है? उसने कहा कि जन्म से दहाड़ा ही नहीं । कैसे अभ्यास में पड़ गया ! बड़ी कृपा तुम्हारी, जो मुझे जगा दिया। सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम्हें पकड़ ले भेड़ों के झुंड से । तुम बहुत नाराज होओगे। तुम गिड़गिड़ाओगे। तुम कहोगे, यह क्या करते महाराज ? छोड़ो मुझे, जाने दो। मैं हिंदू हूं, मैं मुसलमान हूं। मैं ईसाई हूं, मुझे चर्च जाना है - रविवार का दिन ! आप कहां ले जाते हो ? मुझे जाने दो। जानो और जागो ! 121
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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