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बोध पैदा हुआ।
सम्यक बोध ऐसा हो गया गहन कि अब चुनाव भी नहीं करना पड़ता। अब तो जो ठीक है वह सहज ही होता है। अब सम्यक बोध ऐसे गहरे उतर गया प्राणों में, रोएं-रोएं में समा गया, श्वास-श्वास में भिद गया कि अब तो जो ठीक है वही होता है। अब गलत होता ही नहीं। अब चुनाव नहीं करना पड़ता है कि यह गलत और यह ठीक; यह ठीक है इसको करूं और यह गलत इसको न करूं। जब तक चुनाव करना पड़े तब तक सम्यक बोध; जब तक चुनाव की क्षमता ही न हो तब तक अबोध; और जब चुनाव के बिना ठीक होने लगे, सहज ही ठीक होने लगे, तब स्व-बोध, या बाल-बोध, या सहज बोध-जो भी नाम देना चाहो।
तब एक खयाल में ले लेना। जैसा छोटा बच्चा है, उसे कुछ पता नहीं है कि क्या करना क्या नहीं करना, ऐसे ही संत को भी कुछ पता नहीं है कि क्या करना और क्या नहीं करना। इसलिए दोनों में एक समानता है। मगर एक बड़ा भेद भी है। छोटे बच्चे को पता नहीं है कि क्या करना और क्या नहीं करना, क्योंकि वह अबोध है, अभी बुद्धि जागी नहीं है, अभी भेद आया नहीं है। संत को भी पता नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना; बुद्धि जाग भी गई और गई भी। अब जागरण ऐसा स्वाभाविक हो गया है कि जो होता है होता है, जो होता है वही ठीक होता है। सम्यक बोध में हमें ठीक करना पड़ता है और सहज बोध में ठीक होता है। ___ जैसे तुमने देखा कि दरवाजा है, निकल गये; ऐसा सोचते थोड़े ही हो खड़े हो कर कि निकलें दरवाजे से कि दीवाल से निकलें, कि दीवाल से निकलेंगे तो याद है पहले निकले थे तो सिर में ठोकर खाई थी और निकल भी न पाये थे, और दरवाजे से जब भी निकले तो निकल भी गये, ठोकर भी न खाई, इसलिए चलो दरवाजे से ही निकलना ठीक है। ऐसा तुम इतना हिसाब थोड़े ही करते हो दरवाजे के सामने खड़े हो कर! और जो ऐसा हिसाब करे उस पर तुम्हें शक होगा कि यह निकलेगा दरवाजे से कि नहीं? निकल पाएगा कि नहीं? क्योंकि यह बात ही ऐसी सोच रहा है जिससे शक होता है, इसके मन में दीवाल से निकलने का अभी आकर्षण है।।
यह समझा रहा है। यह कहता है, क्रोध बुरा है, पाप है, नरक जाना पड़ता है, क्रोध करना ठीक नहीं है। लेकिन जिसका बोध परिपूर्ण हो गया, वह ऐसा थोड़े ही कहता है कि क्रोध करना ठीक नहीं, कि क्रोध करने से नरक जाना पड़ता है, वह क्रोध करता नहीं है; जैसे दीवाल से नहीं निकलता। वहां सिर्फ सिर टकराता है, कुछ सार नहीं है। सारे अनुभवों का निचोड़ हाथ आ गया है, कुंजी मिल गई है। तुम सुनते हो इस तरह की बातें कि बुद्ध ने कभी क्रोध नहीं किया, कि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, मगर ये हमारे वक्तव्य हैं। ऐसा कहना कि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, ठीक नहीं है। इससे तो ऐसा लगता है, क्रोध करना चाहते थे और नहीं किया। जैसे कि करने का दिल था और रोक लिया, सम्हाल लिया। अगर रोक लिया, सम्हाल लिया, तो महावीर अभी कहीं पहुंचे ही नहीं। नहीं, क्रोध हुआ नहीं। ऐसी चैतन्य की एक दशा है जहां क्रोध होता नहीं है, जहां तुम्हारा चैतन्य ही इतना गहरा होता है कि यह असंभव हो जाता है कि क्रोध करो या सोचो भी या विचार भी करो। __ अबोध; बोध; सहज बोध। अबोध अज्ञान की अवस्था है; बोध मध्य की, ज्ञान और अज्ञान मिश्रित; सहज बोध शुद्ध ज्ञान की। और जहां से चीजें चलती हैं वहीं पहुंच जाती हैं। फिर संत छोटे
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4 |