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आदमी विशिष्टता खोज रहा है। कोई विशिष्टता खोजता है धन के द्वारा कि मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो विशिष्ट हो जाता है— स्वभावतः । क्योंकि करोड़ों रुपये बहुत लोगों के पास नहीं हैं, कुछ लोगों के पास हैं। आकांक्षा होती है धनी की कि वह इतना धनी हो जाये कि आखिरी हो जाये, उसके ऊपर कोई न रहे।
एण्ड्रू कारनेगी की आत्मकथा मैं पढ़ता था । वह अमरीका का सबसे बड़ा धनपति आदमी था । वह अपने सेक्रेटरी से एक दिन पूछता है कि मैं बार-बार सुनता हूं कि यह निजाम का हैदराबाद दुनिया में सबसे बड़ा धनी है, इससे मुझे चोट लगती है। तुम पता लगाओ, इसके पास है कितना?
अब यह जरा मुश्किल बात थी। क्योंकि निजाम हैदराबाद के पास धन तो नहीं था, हीरे-जवाहरात थे; उनका कोई हिसाब-किताब नहीं कि वे कितने के हैं । एण्ड्रू कारनेगी कहता है, जरा पता लगाओ कि कितना है इसके पास तो मैं इसे भी हरा कर बता दूं । मगर कुछ पता तो चले कि है कितना ! बस यह कोरी बात चलती है कि सबसे ज्यादा है।
दस अरब रुपया छोड़ कर मरा एण्ड्रू कारनेगी, लेकिन फिर भी उसके मन में एक जरा-सी खटक रह गई थी कि निजाम हैदराबाद, पता नहीं इसके पास ज्यादा हो
!
आदमी धन की चेष्टा करता है ताकि विशिष्ट हो जाये । कोई पद की चेष्टा करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं, प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो विशिष्ट हो जाऊं । साठ करोड़ के देश में राष्ट्रपति एक ही होगा तो विशिष्ट हो जाता है। कोई ज्ञान इकट्ठा करता है और विशिष्ट हो जाता है। कोई नोबल प्राइज पा ले है और विशिष्ट हो जाता है। तुम इतना तो कर ही सकते हो न कि किसी पहाड़ पर जा कर आंख बंद करके बैठ जाओ, पद्मासन लगा लो। इतना तो कर ही सकते हो, तो भी विशिष्ट हो जाते हो। और कभी-कभी तो ऐसा होता है, मजेदार है यह दुनिया, राष्ट्रपति तुम्हारे चरण छूने आ सकते हैं, और एण्ड्रू कारनेगी तुम्हारी प्रशंसा कर सकते हैं।
साक्षी होने में भी कहीं विशिष्ट होने का ही भाव न बना रहे। इसलिए मैं तुमसे आखिरी बात कहता हूं: लौट आओ। साक्षी तक जाओ, फिर तो कोई डर न रहा लौटने का । अब तो तुमने जान लिया कि तुम्हारी निष्कलुषता परम है, उसमें कलुष हो ही नहीं सकता । अब तो तुमने जान लिया कि तुम्हारी पवित्रता आत्यंतिक है, तुम पापी हो ही नहीं सकते। अब तो तुमने जान लिया कि तुम किसी कालकोठरी से भी गुजरो तो भी कालिख तुम्हें लग नहीं सकती। अब तो तुम जानते हो; अब तो तुमने देख लिया भीतर का खुला निरभ्र आकाश; अब तो तुमने परम से पहचान कर ली; अब तो तुम्हें स्वास्थ्य के दर्शन हो गये, स्वयं के दर्शन हो गये; अब क्या भय है? अगर तुम रुके हो अभी भी तो शक है कि तुम्हें अभी भी भय है और अभी भी तुमने स्वभाव को पूरा नहीं देखा। अभी भी कहीं कुछ डर किसी कोने - कार में बैठा है जो कहता है, जाना मत वहां, कहीं उलझ न जाओ, कहीं फिर जंजाल में, संसार में न पड़ जाओ। तो मैं परम ज्ञानी उसी को कहता हूं जिसका यह भी भय चला गया। अब
आता है जगत में वह सरल हो जाता है, सहज हो जाता है।
जापान का एक सम्राट किसी ज्ञानी की तलाश करता था अपनी वृद्धावस्था में । तो वह गया, जिन-जिन के बड़े नाम थे उन-उन के दर्शन करने गया। लेकिन कहीं उसे तृप्ति न हुई । उसका बूढ़ा वजीर उसके साथ जाता था। एक दिन उसने कहा कि ऐसे तो आप भटकते रहेंगे और कभी भी तृप्ति
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4