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________________ बुद्ध जिसे करुणा कहते हैं वह दूसरी सीढ़ी है। लेकिन अभी भी करुणा है। गंध का पता नहीं है अब किस पते पर जा रही है, लेकिन जा रही है। किस तक पहुंचेगी, इसका पता नहीं है लेकिन किसी तक पहुंचेगी, फैल रही है, बिखर रही है। अष्टावक्र का साक्षी और एक कदम आगे है। अब कहीं कुछ आता-जाता नहीं, सब ठहर गया है, सब शांत हो गया है। जाने में थोड़ी-सी लहर तो होगी ही। अष्टावक्र कहते हैं : आत्मा न जाती है न आती है; अब गंध अपने में ही रम गई है। यह जो आत्मरमण है। क्राइस्ट की करुणा दूसरे के प्रति निवेदित है; बुद्ध की करुणा अनिवेदित, असंग है, लेकिन फिर भी उड़ती हुई हवाओं में किसी नासापुट तक पहुंच जायेगी। न भी पहुंचे, लेकिन उड़ रही है। साक्षी-भाव जाता ही नहीं, ठहर गया, सब शून्य हो गया। क्राइस्ट के प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है; बुद्ध की करुणा में स्वयं का होना महत्वपूर्ण है; साक्षी में न दूसरा रहा न स्वयं रहा; मैं-तू दोनों गिर गये। जाग कर देखा कि मैं भी झूठ है, तू भी झूठ है। और पूछा है कि 'और आपकी उत्सव-लीला में...?' वह आखिरी बात है। साक्षी में सब ठहर गया, लेकिन अगर यह ठहरा रहना ही आखिरी अवस्था हो तो परमात्मा सृजन क्यों करे? परमात्मा तो ठहरा ही था! तो यह लीला का विस्तार क्यों हो? तो यह नृत्य, यह पक्षियों की किलकिलाहट, ये वृक्षों पर खिलते फूल, ये चांद-तारे, यह विराट विस्फोट! परमात्मा तो साक्षी ही है! तो जो साक्षी पर रुक जाता है वह मंदिर के भीतर नहीं गया। सीढ़ियां पूरी पार कर गया, आखिरी बात रह गई। अब न तू बचा न मैं बचा, अब तो नाच होने दो। अब तो नाचो। कभी तू के कारण न नाच सके, कभी मैं के कारण न नाच सके। अब तो दोनों न बचे, अब तुम्हें नाचने से कौन रोकता है? अब कौन-सा बंधन है? कौन-सी कारागृह की दीवाल तुम्हें रोकती है? अब तो नाचो; अब तो रचाओ रास; अब तो होने दो उत्सव! अब क्यों बैठे हो? अब लौट आओ! - यह लौट आना बिलकुल नये ढंग का है। वहीं लौट आओ जहां से गये थे—उसी बाजार में। लेकिन अब तुम शून्य की भांति आ रहे हो। साक्षी तुम्हारे भीतर है, बुद्ध की करुणा तुम्हारे भीतर है, क्राइस्ट का प्रेम तुम्हारे भीतर है। और एक नई घटना घट गई है : अब तुम्हारे भीतर दुख है ही नहीं, अशांति है ही नहीं, अब तो नाचो। पहले तो नाचने से थक जाते थे और नाचने में भी ज्वर था, ताप था, अब तो सब शीतल हो गया है, अब तो सब चंदन हो गया है, अब तो नाचो! यह जो विराट नृत्य चल रहा है परमात्मा का, इसमें सम्मिलित हो जाओ। अब किनारे क्यों बैठे हो? जरूरी था एक दिन किनारे बैठ जाना, नहीं तो तुम पागल ही बने रहते। एक दिन किनारे बैठ जाना जरूरी था-तटस्थ हुए, कूटस्थ हुए। लेकिन अब! बहुत-से धर्म रुके हैं। जैसे ईसाइयत जीसस के प्रेम पर रुक जाती है; बहुत गहरी नहीं जाती। बुद्ध का धर्म करुणा पर रुक जाता है। जैन कूटस्थ भाव पर रुक जाते हैं, साक्षी पर रुक जाते हैं। इसलिए तुम पूछो कि जैनों के मोक्ष में क्या हो रहा है? सब पहुंचे हुए सिद्ध पुरुष अपनी-अपनी सिद्धशिलाओं पर बैठे हैं। मगर जरा सोचो इस हालत को, कब से बैठे हैं, और बैठे ही हैं, बैठे ही हैं...। ___ बर्टेड रसेल ने बड़ा मजाक उड़ाया है; उसने कहा है कि अगर ऐसा सदा बैठे रहना हो अनंत काल तक तो मैं नहीं जाता। इसको तुम थोड़ा विचार करो, सिद्धशिला पर पहुंच गये, आखिरी अवस्था आ प्रेम, करुणा, साक्षी और उत्सव-लीला | 61
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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