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________________ गांधी की तस्वीरें कितने घरों में हैं? घर-घर में हैं, दफ्तर-दफ्तर में हैं! गांधी महात्मा हैं! तुम तो चकित होओगे यह जान कर कि एक आदमी ने जहां रमण बैठे रहते थे वहां भी उनके पीछे गांधी की तस्वीर टांग दी थी। रमण तो उनमें से थे कि उन्होंने यह भी न कहा कि यह क्या कर रहे हो! उन्होंने कहा, ठीक है, टांग रहे हो तो टांग दो। रमण के पीछे भी गांधी की तस्वीर टंगी थी! सज्जन हमें पहचान में आ जाता है। वह हमारी भाषा बोलता है। तुम्हें भोजन में रस है, वह विरस की भाषा बोलता है—एकदम समझ में आ जाता है। तुम्हें स्त्री में रस है, वह ब्रह्मचर्य की बात करता है-एकदम समझ में आ जाता है। तुम्हें धन की पकड़ है, वह त्याग की बात करता है—एकदम समझ में आ जाता है। भाषा वही है, जरा भी भेद नहीं है। तुम्हारी और सज्जन की भाषा में जरा भेद नहीं है। तम्हारी दर्जन की भाषा: उसकी सज्जन की। तम इधर को जा रहे हो, वह तमसे विपरीत रहा है। लेकिन रास्ता एक ही है। तुम सीढ़ी पर नीचे की तरफ जा रहे हो, वह सीढ़ी पर ऊपर की तरफ जा रहा है; लेकिन सीढ़ी एक ही है। संत तुम्हें बिलकुल समझ में नहीं आता। संत बेबूझ है। प्रवृत्तौ जायते रागो...। पहले तो लोग प्रवृत्ति में राग रखते हैं—यह कर लें, यह कर लें, यह कर लें! फिर जब बार-बार करके पाते हैं कि सुख नहीं मिलता तो सोचने लगते हैं, निवृत्ति कर लें। वह भी प्रवृत्ति की आखिरी सरणी है। पहले सोचते हैं, भोग लें; और जब भोग में कुछ नहीं मिलता तो सोचते हैं, चलो अब त्याग कर लें, अब त्याग को भोग लें! देख लिया संसार में, कुछ न पाया; अब संन्यासी हो जायें, अब त्यागी हो जायें; स्त्रियों के पीछे दौड़ कर देख लिया, अब स्त्रियों के विपरीत दौड़ कर देख लें; शायद सुख वहां हो। भोजन की खूब-खूब आकांक्षा करके देख ली, कुछ भी न मिला, देह जीर्ण-जर्जर हो गई, अब उपवास करके देख लें! 'प्रवृत्ति में राग और निवृत्ति में द्वेष...।' जिस-जिससे राग था प्रवृत्ति में, जहां-जहां हार हो गई, विषाद आया, जीवन का स्वाद खराब हुआ-वहां-वहां द्वेष पैदा हो गया। ___ तो तुम देखो, तुम्हारा साधु स्त्री को गाली देता रहता है, स्वाद को गाली देता रहता है, भोग को गाली देता रहता है। यह हुआ क्या? यह द्वेष हो गया। जहां राग था, वहां द्वेष हो गया। पहले आग में हाथ डालने का मन होता था; डाल कर देख लिया, हाथ जल गये-अब आग से दुश्मनी हो गई। पहले आकर्षण था, अब विकर्षण हो गया। लेकिन संबंध जुड़ा है, संबंध नहीं जाता। . - संत वही है जिसका संबंध ही गया। भोग तो व्यर्थ हुआ ही हुआ, त्याग भी व्यर्थ हुआ। भोग के साथ ही त्याग भी व्यर्थ हो जाये तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होती है। अनीति के साथ ही साथ नीति भी व्यर्थ हो जाये और अशुभ के साथ साथ शुभ भी व्यर्थ हो जाये; क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उनमें भेद नहीं है। दुर्जन और सज्जन एक-दूसरे के साथ खड़े हैं। दुर्जन और सज्जन सहयोगी हैं, एक ही दुकान में पार्टनर हैं। ___ तुम जरा एक ऐसी दुनिया की कल्पना करो जिसमें कोई दुर्जन न हो, क्या वहां सज्जन होंगे? एक ऐसी दुनिया की कल्पना करो कि जहां राम ही राम हों और रावण न हों-राम बचेंगे? राम के बचने के लिए रावण का होना एकदम जरूरी है। रावण के बिना राम हो नहीं सकते। यह भी क्या राम होना 44 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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