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________________ का क्षण आ जाये। तो उसी क्षण जो है तुम्हें दिखाई पड़ जायेगा। संसार की परिभाषा है : भागते-भागते परमात्मा को देखा-संसार। रुक कर संसार को देखा-परमात्मा। ठीक-ठीक चित्र बन जाये, जो है उसका, तो परमात्मा। गलत-सलत चित्र बन जाये, तो संसार। ___ संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। संसार परमात्मा है, परमात्मा संसार है। तुम्हारे देखने के दो ढंग हैं। एक भागते हुए आदमी ने देखा, तृष्णा के पीछे दौड़ते आदमी ने देखा-ठीक से देखा नहीं, देखने की फुरसत भी न थी, उपाय भी न था, अवकाश भी न था। और एक किसी ने शांत बोधिवृक्ष के नीचे बैठ कर देखा, बिलकुल ठहर कर देखा। तुम देखते हो बुद्धों की प्रतिमा हमने बनाई है, तीर्थंकरों की प्रतिमा बनाई हैं! तुमने किसी की चलती हुई प्रतिमा देखी है, चलते हुए? किसी की बैठी बनाई है, किसी की खड़ी बनाई है; लेकिन एक बात तय है : सब रुके हैं। जाओ जैन मंदिरों में, बौद्ध मंदिरों में, खोजो-सब रुके हैं। ठहरे हैं। इस ठहराव में ही सत्य का अनुभव है। 'प्रवृत्ति में राग, निवृत्ति में द्वेष पैदा होता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त बालक के समान जैसा है वैसा ही रहता है।' सुनो इस अदभुत वचन को! प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि। निर्द्वदो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थितः।। अब अगर तुम्हारे मन में तृष्णा है तो दो बातें पैदा होंगी। यावत् स्पृहा यावत् निर्विचार दशास्पदम्। जहां चित्त में तरंगें हैं वहां तुम्हारी बोध की दशा खो गई; तुम गहन अंधकार में भर गये; जो है वह दिखाई नहीं पड़ता; तुम्हारी आंखें सुस्पष्ट न रहीं; स्वच्छता खो गई; आंखों का कुंवारापन खो गया; आंखें दूषित हो गईं। तुम्हारी आंख पर विकृति का चश्मा लग गया। तुम्हारी आंखें अब वही नहीं दिखलातीं जो है; या तो वह दिखलाती हैं जो तुम चाहते हो, या दौड़ के कारण जो विकृति छलकती है वह दिखलाती हैं। छाया दिखाई पड़ती है, अब सत्य दिखलाई नहीं पड़ता। परछाइयां घूमती हैं अब, प्रतिबिंब उठते हैं; लेकिन इन प्रतिबिंबों से सत्य का कोई भी पता लगाना संभव नहीं है। शोरगुल पैदा होता है, लेकिन संगीत खो गया। __संगीत और शोरगुल में तुमने कोई बहुत फर्क देखा? इतना ही फर्क है कि शोरगुल में व्यवस्था नहीं है और संगीत में व्यवस्था है। शोरगल में व्यवस्था आ जाये तो संगीत हो जाता है. संगीत व व्यवस्था खो जाये तो शोरगल हो जाता है। संगीत का इतना ही अर्थ है कि स्वर लयबद्ध हो गये सब स्वरों के बीच एक सामंजस्य आ गया, एक समवेतता आ गई। अगर सभी स्वर अनर्गल हों, असंगत हों, एक-दूसरे के विपरीत हों, एक द्वंद्व चला रहे, एक कोलाहल पैदा हो-तो संगीत पैदा नहीं होगा; सिर खाने की अवस्था हो जायेगी; विक्षिप्त करने लगेगा, पागल कर देगा। __परमात्मा इस जगत के शोरगुल में संगीत की खोज है; उसे जान लेना है जो इस सबके बीच समस्वर है; जो एक स्वर सारे स्वरों के बीच व्याप्त है। 42 अष्टावक्र: महागीता भाग-4 |
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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