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________________ दुखी तो होओगे ही। यह जो तनाव पैदा होगा, यह जो बेचैनी पैदा होगी, ये जो तरंगें उठेगी-ये तुम्हारे प्राण को छेद जायेंगी। तुम्हारे जीवन से नृत्य और संगीत खो जाये तो आश्चर्य क्या! तुम्हारी आंखों में शांति न हो और तुम्हारे हृदय में परमात्मा का सितार न बजे तो आश्चर्य क्या! तुम्हारे रग-रोयें में, हृदय की धड़कन में, यह जो विराट महोत्सव चल रहा है, इसके साथ सब संबंध छूट जाये, इसका पता-ठिकाना ही भूल जाये तो आश्चर्य क्या! ____ वृक्ष अभी सुखी हैं—इसी क्षण! और पक्षी अभी गीत गा रहे हैं; कल के लिए स्थगित नहीं किया है। सरज अभी निकला है. कल नहीं निकलेगा। और आकाश अभी फैला है: कल का आकाश को कुछ पता ही नहीं। यह सारा जगत मनुष्य को छोड़ कर अभी है, और मनुष्य कभी है-कभी, कहीं और। बस इस अभी और कभी के बीच जो तनाव है, वहां तृष्णा है। तृष्णा अशांति लाती है। फिर जितनी बड़ी तृष्णा हो उसी मात्रा में अशांति होती है। - इसलिए मैं तुमसे कहता हूं : सांसारिक आदमी की अशांति धार्मिक आदमी से ज्यादा बड़ी नहीं, कम है। उसकी तृष्णा ही छोटी चीजों की है, क्षुद्र चीजों की है। एक कार खरीदनी है—यह भी कोई बड़ी तृष्णा है! थोड़ा-बहुत अशांत होगा। एक बड़ा मकान बनाना है-यह भी कोई बड़ी बात है! इतने बड़े मकान हैं ही, बनते ही रहे हैं, बनते-गिरते रहे—यह कोई नई बात नहीं, कुछ बड़ी विशेष बात नहीं। इसकी तृष्णा तो बड़ी छोटी है, क्षणभंगुर है। इसकी तृष्णा का तनाव भी भारी नहीं होने वाला है। लेकिन किसी को मोक्ष जाना है, इसकी तृष्णा बड़ी कठिन है। . तुमने कभी किसी को मोक्ष जाते देखा? बड़े मकान बनाते लोग तुमने देखे, संसार को जीत लेने वाले लोग देखे, धन की राशियां लगा देने वाले लोग देखे-तुमने कभी किसी को मोक्ष जाते देखा? असल में मोक्ष जाने की भाषा ही अज्ञानी की भाषा है। अष्टावक्र कहते हैं : आत्मा न कहीं जाती न आती। जाना कैसा! जाओगे कहां! रमण मरने लगे तो किसी ने पूछा कि अब आप जा रहे हैं। उन्होंने आंख खोली, कहा: 'जाऊंगा कहां। आना-जाना कैसा।' फिर आंख बंद कर ली। पता नहीं सनने वाले ने समझा कि नहीं। जाना-आना कैसा! जाना-आना होता ही नहीं। आकाश कहीं जाता-आता? अष्टावक्र ने कहा कि तुम मिट्टी का घड़ा ले आते हो, तो मिट्टी का घड़ा आता-जाता है; मिट्टी के घड़े के भीतर का जो आकाश है वह कहीं आता-जाता? तुम चलते हो, तुम्हारी आत्मा थोड़े ही चलती है! ससार चलता है, परमात्मा ठहरा हुआ है। परमात्मा कील है संसार के चाक की। सब चलता रहता है, परमात्मा ठहरा हुआ है। मोक्ष जाना नहीं पड़ता। मोक्ष तो अनुभव है इस बात का कि मैं जहां हूं वहीं मोक्ष है; मैं जैसा हूं, ऐसे ही मोक्ष है। तुम्हें बड़ी अजीब धारणाएं लोगों ने सिखा दी हैं और जिन्होंने सिखाई हैं वे तृष्णातुर लोग हैं। निश्चित ही उन्होंने तृष्णा का पाठ पढ़ा दिया है। ऐसे ही तुम पागल थे, पागलपन को उन्होंने और सजावट दे दी है, और व्याख्या-परिभाषा दे दी है। तुम पागल थे धन पाने को, उन्होंने कहा: 'इस धन के पीछे क्या पड़े हो, अरे परम धन को पाओ!' मगर पाने की भाषा जारी है। तुम स्त्रियों के पीछे दौड़ रहे थे, उन्होंने कहा : ‘इन स्त्रियों में क्या रखा है, आज नहीं कल सूख कर अस्थिपंजर रह जायेंगी!' साक्षी आया, दुख गया 39 .
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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