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________________ ने योपादेयता तावत्संसार विटपांकुरः। ९ स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्पदम्।। 'जब तक तृष्णा जीवित है—जो कि अविवेक की दशा है—तब तक हेय और उपादेय, त्याग और ग्रहण भी जीवित हैं, जो कि संसाररूपी वृक्ष का अंकुर हैं।' __तृष्णा मनुष्य की उलझन की मूल भित्ति है। तृष्णा को ठीक से समझ लिया तो सारे धर्मों का अर्थ • समझ में आ गया। तृष्णा को समझ लिया तो दुख का कारण समझ में आ गया। और जिसे दुख का कारण समझ में आ जाये, उसे दुख से मुक्त होते क्षण भर भी नहीं लगता। दुख से नहीं मुक्त हो पाते हैं—सिर्फ इसीलिए कि कारण समझ में नहीं आता। और कारण समझ में न आये तो हम लाख उपाय करें, हम दुख को बढ़ाये चले जायेंगे। अंधेरे में तीर चला रहे हैं; निशाना लगेगा, संभव नहीं है। रोशनी चाहिए। और रोशनी कारण को समझने से तत्क्षण पैदा हो जाती है। इस बात को खयाल में लें। शरीर में कोई बीमारी हो तो पहले हम निदान की फिक्र करते हैं। निदान हो गया तो आधा इलाज हो गया। अगर निदान ही गलत हुआ तो इलाज खतरनाक है, इलाज करना ही मत। क्योंकि दवाएं लाभ पहुंचा सकती हैं, नुकसान भी। जो दवाएं लाभ पहुंचा सकती हैं वे ही नुकसान भी पहुंचा सकती हैं। निदान ठीक न हो, बीमारी पकड़ में न आई हो तो इलाज बीमारी से भी महंगा पड़ सकता है। बीमारी से तो शायद चुपचाप बैठे रहते तो प्राकृतिक रूप से भी छूट जाते, लेकिन अगर गलत औषधि शरीर में पड़ गई तो प्राकृतिक रूप से छुटकारा न हो सकेगा। इसलिए पहले हम चिंता करते हैं निदान की। शरीर के संबंध में यह सच है कि ठीक निदान हो तो पचास प्रतिशत इलाज हो गया; लेकिन मन के संबंध में तो और अदभुत बात है, वहां तो निदान ही सौ प्रतिशत इलाज है। शरीर के संबंध में पचास प्रतिशत, मन के संबंध में सौ प्रतिशत। क्योंकि मन की बीमारियां तो भ्रांति की बीमारियां हैं; जैसे किसी ने दो और दो पांच गिन लिया, फिर सारा हिसाब गलत हो जाता है। मन की बीमारी कोई वास्तविक बीमारी नहीं है; भ्रांति है, भूल है। समझ में आ गया कि दो और दो चार होते हैं, उसी क्षण सब भ्रांति मिट गई। मन की बीमारी तो ऐसी है जैसे मरुस्थल में किसी को सरोवर दिखाई पड़ गया। वह धोखा है।
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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