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________________ यह सुन कर विद्यासागर तक उत्तेजित हो गये और भागने को खड़े हो गये कि कहां लग गई आग! लेकिन वह आदमी वैसा ही चलता रहा जैसा चल रहा था। उस नौकर ने फिर कहाः मालिक सुना नहीं. आप होश में हैं? मकान में आग लग गई है. सब जला जा रहा है। और आपकी चाल वही चले जा रहे हैं आप! लखनवी चाल का यह मौका नहीं। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने लिखा है कि उस आदमी ने मुस्कुरा कर कहाः चाल मेरी जिंदगी भर की है, मकान के जलने न जलने से चाल को नहीं बदल सकता। फिर जो जल रहा है, जल रहा है; मेरे दौड़ने से भी क्या होगा! यह मेरी जिंदगी भर की चाल है, इसको इतनी आसानी से नहीं बदल सकता। तुझे भागना हो, तू भाग; मैं आता हूं। यह मेरे टहलने का समय है। फिर मकान जल ही रहा है; मेरे भागने से क्या होगा! मेरे भागने से कुछ बचने वाला नहीं है। और वह आदमी उसी चाल से चलता रहा। विद्यासागर ने लिखा है कि मुझे होश हुआ। मैंने कहा, हद हो गई बात, यह एक आदमी है जिसे कोई फर्क न पड़ा। और एक मैं हूं कि वायसराय की सभा में जा रहा हूं पुरस्कार लेने, तो मित्रों के उधार कपड़े ले लिए! और यह आदमी अपनी चाल नहीं बदल रहा है, मकान में आग लग गई तो भी! और मैं अपने कपड़े बदल रहा हूं! . वे दूसरे दिन अपने पुराने गरीब के कपड़े ही पहने हुए वायसराय के भवन में पहुंच गये। वायसराय भी थोड़ा चिंतित था। उसने पूछा भी कि ईश्वरचंद्र मैंने तो सुना था मित्रों ने कपड़ों की व्यवस्था कर दी। उन्होंने कहाः कर दी थी, लेकिन इन मीर साहिब ने सब गड़बड़ कर दी। नहीं; इतनी आसानी से क्या जिंदगी भर की चालें बदली जाती हैं! - जीवन में ऐसा हो कि वैसा हो, अगर तुम्हारी चाल वैसी की वैसी बनी रहे, जरा भी फर्क न पड़े, भोग में कि त्याग में, सुख में कि दुख में, सफलता में कि विफलता में, तुम ठीक वैसे ही अकंप बने रहो, तो ही विश्राम उपलब्ध हुआ। निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति। तब तुम्हें संसार दिखाई भी पड़ता है और नहीं भी दिखाई पड़ता है। जो है वही दिखाई पड़ता है। जो नहीं है वह नहीं दिखाई पड़ता। तब तुम्हारे लिए वस्तुतः यथार्थ प्रगट होता है। तुम उस यथार्थ पर अपने प्रक्षेपण नहीं करते हो। जो जैसा है उसे वैसा ही देख लेना परम आनंद है, परम विश्राम है। 'जिसने परमब्रह्म को देखा है, वह भला 'मैं ब्रह्म हूं' का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चित हो कर दूसरा नहीं देखता है, वह क्या चिंतन करे!' । ___ सुनो उपनिषद से भी ऊंची उड़ान ! उपनिषद आखिरी उड़ान मालूम होते हैं। उपनिषद के पार भी कोई उड़ान हो सकती है, इसकी संभावना नहीं मालूम होती है, लेकिन अष्टावक्र उपनिषद से भी ऊंची उड़ान भरते हैं। यह सत्र कह रहा है: येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिंतयेत्। जिसको ब्रह्म दिखाई पड़ता हो वह शायद ऐसा सोचे भी कि मैं ब्रह्म हूं...। किं चिंतयति निश्चितो द्वितीयं यो न पश्यति। लेकिन जिसे दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ता, जिसका सारा चिंतन और चिंतायें समाप्त हो गई हैं, साक्षी स्वाद है संन्यास का 369
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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