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________________ वासना अभी शेष है। डर कर भाग रही है कोई स्त्री पति से, तो पति में उसकी वासना शेष है। जिसमें हमारा लगाव है उसी से हम भागते हैं। जहां हमारी चाह है उसी से हम अपने को रोकते हैं। तो जिसको तुम त्यागी कहते हो, वह भोगी का ही विपरीत रूप है; भोगी का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। त्यागी और भोगी में कुछ बहुत बुनियादी फर्क नहीं। हां, एक-दूसरे के उल्टे खड़े हैं। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं। लेकिन दोनों की नजर एक ही बात पर है। भोगी धन चाहता है, त्यागी धन से डरा हुआ है। डर का मतलब ही है चाह अभी मौजूद है। भोगी कहता है : धन न मिलेगा तो मर जाऊंगा। त्यागी कहता है : धन मेरे सामने मत लाना, धन देख कर ही मुझे ऐसा. होता है जैसे कोई सांप-बिच्छू ले आया। धन मेरे सामने मत लाना, धन जहर है! भोगी कहता है कामनी और कांचन जीवन का लक्ष्य है। और त्यागी समझाता है लोगों को, कामिनी-कांचन से बचो। मगर दोनों की नजर एक ही बात पर लगी है, भेद नहीं है। ज्ञानी को न तो कामिनी-कांचन में कोई रस है न कोई त्याग है। येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोति वै। जिसको संसार दिखाई पड़ रहा है, वह अगर इंकार करे संसार का, त्याग करे, चल सकता है। निर्वासनः किं कुरुते...। लेकिन जिसकी सब वासना ही शून्य हो गई, अब क्या करेगा, त्याग करेगा? कैसे करेगा? भोग ही नहीं बचा तो त्याग कैसे बचेगा? त्याग तो भोग के ही सिक्के का दूसरा पहलू है। निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति। ऐसा व्यक्ति तो देखता है, फिर भी उसे कुछ दिखाई कहां पड़ता है! संसार दिखाई नहीं पड़ता उसे; देखता है। वस्तुतः उसी के पास देखने वाली आंखें हैं, जो देखते हुए संसार नहीं देखता है। धन पड़ा है। तुम पास से गुजरे। तुम अगर भोगी हो तो जल्दी से कब्जा कर लेना चाहोगे। तुम अगर त्यागी हो, छलांग लगा कर भाग खड़े होओगे, क्योंकि धन पड़ा है; कहीं ऐसा न हो कि तुम जरा देर क जाओ और लोभ पकड़ ले; कहीं ऐसा न हो किसी को आसपास न देख कर दिल हो कि उठा ही लो, कोई भी तो नहीं देख रहा, वक्त-बे-वक्त काम पड़ जायेगा। तुम एकदम छलांग लगा कर भागोगे। तुम्हारी छलांग बता रही है कि तुम्हारे भीतर अभी भी वासना शेष है। एक तीसरा आदमी है वह चलता है, जैसा चल रहा था वैसे ही चलता है। धन पड़ा है; न तो उठाता उसे, न भागता। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को गवर्नर जनरल ने एक उपाधि देने का आयोजन किया था। तो गरीब आदमी थे और दीन-हीन वस्त्र थे उनके। मित्रों ने कहा कि वायसराय के भवन में जाओगे, स्वागतसमारोह होगा, बड़े-बड़े लोग होंगे, पदाधिकारी होंगे-इन कपड़ों में? नहीं, यह ठीक नहीं। हम तुम्हें अच्छे कपड़े बना देते हैं। ईश्वरचंद्र ने बहुत मना किया कि मेरे ही कपड़े...जो भी हैं, मेरे ही हैं; तुम्हारे बनाये उधार होंगे। लेकिन मित्र न माने तो वे राजी हो गये। एक ही दिन पहले सांझ को घूमने निकले थे और सामने ही एक मुसलमान लखनवी कपड़े पहने हुए, हाथ में छड़ी लिए हुए, लखनवी चाल से चलता हुआ टहल रहा था-आगे ही उनके। और तभी एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा उस मुसलमान को कि मीर साहिब, आपके मकान में आग लग गई, चलिए, जल्दी चलिए! सब जला जा रहा है! 368 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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