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________________ सुख का स्वाद न लगा तो मैं तुमसे दुख छीनना भी नहीं चाहता, क्योंकि दुख तुम्हारी संपदा है अभी। अभी उसको छाती से लगाये तुम बैठे हो। अभी कुछ तो है, तुम एकदम खाली तो नहीं। तुम एकदम शून्य में तो नहीं पड़ गये, रिक्त तो नहीं हो गये हो । चलो धन सही, मकान सही, परिवार सही –— कुछ तो पकड़े बैठे हो ! हाथ में कुछ तो है। राख ही सही - तुम चाहे उसको विभूति कहो - राख ही सही, विभूति कह लो उसको, अच्छे नाम रख लो उसके, मगर हाथ में कुछ तो है! नाव कागज की सही, मगर नाव तो है; नाव जैसी तो लगती है कम से कम ! डूबेगी तब डूबेगी, मगर अभी तो नाव का भरोसा है । सपना सही, जब टूटेगा तब टूटेगा; मगर अभी तो सहारा है, अभी तो इसके सहारे को पकड़ कर तैरे चले जाते हैं। अभी तो मत छीनो । जब तक तुम्हें सत्य न मिल जाये, सपना तुमसे छीना भी नहीं जाना चाहिए। और परम ज्ञानी सदा यही चेष्टा करते रहे हैं: सत्य पहले, फिर असत्य अपने से चला जायेगा। ऐसा समझो कि कमरे में अंधेरा है। एक तो उपाय है कि अंधेरे को धक्के दे-दे कर निकालो तुम, पगला जाओगे, निकलेगा न अंधेरा । दूसरा उपाय है: दीया लाओ, जलाओ रोशनी, अंधेरा अपने से निकल जाता है। 'जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं होता है और अनभोगे भोगों के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है । ' • दुनिया में दो चीजें आदमी को पकड़े हुए हैं - एक तो भोगे हुए भोग। जो तुमने भोग लिया उसका स्वाद लग जाता है। जो तुमने भोग लिया उसकी पुनरुक्ति करने की आकांक्षा पैदा होती है— फिर मिले सुख, फिर मिले सुख, फिर से ऐसा हो ! तो एक तो भोगा हुआ सुख पकड़ता है। भोगा हुआ सुख यानी अतीत। और एक अनभोगे सुख की आकांक्षा पकड़े रहती है। अनभोगा सुख यानी भविष्य | जो भोग लिया उसकी पुनरुक्ति चाहता है मन और जो अभी भोगा नहीं वह भी भोगने को मिले इसकी वासना है। इन दो के बीच आदमी पिसता है। दो पाटन के बीच — ये दो पाट हैं— साबित बचा न को! एक तो जो भोग लिया है, वह बार-बार पीछा करता है कि फिर भोगो। और एक जो अभी नहीं भोग पाये, उसकी प्रबल आकांक्षा है कि मरने के पहले एक बार भोग लें। 'जो भोगे हुए भोगों में आसक्त नहीं और अनभोगे भोगों के प्रति निराकांक्षी है, ऐसा मनुष्य संसार दुर्लभ है।' यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासितः। अभुक्तेषु निराकांक्षी तादृशो भव दुर्लभः ।। ऐसा मनुष्य संसार में खोजना बहुत दुर्लभ है जो दोनों पाटों से बच गया हो। और जो बच गया, उसने ही जीवन का सत्य जाना, उसने ही ज्ञान का फल चखा । तो अतीत से छूटो, अतीत को समझो। जो भोग लिया, उसकी पुनरुक्ति में कुछ सार नहीं। क्योंकि भोग लिया, तब क्या मिला ? भोग तो चुके, फिर कुछ मिला तो नहीं; हाथ तो खाली के खाली रहे। अब फिर उसी को भोगना चाहते हो ! यह तो बड़ी बेहोशी है। और भोगने से कुछ नहीं मिला। जो • आज भोगा हुआ हो गया है, वह भी कल अनभोगा हुआ था - उसको भोग कर देख लिया, कुछ नहीं पाया। अब दूसरे अनभोगे सुख के पीछे भाग रहे हो! बड़ा मकान बना लिया, अब उसमें कुछ सुख सहज ज्ञान का फल हे तृप्ति 107
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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