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________________ उसे ऐसा ही लगता है कि 'लगता है तुम्हारी नीम के पत्तों पर नजर है, मुझसे छीन कर तुम कब्जा कर लोगे या कुछ... क्या इरादा है तुम्हारा भगवान जाने ! क्यों मेरे पीछे पड़े हो ?' और अगर वह छोड़ भी दे नीम के पत्ते, तो भी नीम के पत्तों की जो उसकी आदत पड़ गई है, कड़वेपन का जो अभ्यास हो गया वह इतनी आसानी से न छूट जायेगा। नीम के पत्ते छोड़ भी देगा तो रात सपने में नीम के पत्ते ही खायेगा, विचार में नीम के पत्ते छाया डालेंगे, बच न सकेगा। ऊपर-ऊपर से भागा रहेगा तो भीतर-भीतर से जुड़ा रहेगा। नहीं, क्रांति ऐसे नहीं घटती । मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं : 'हम तो भोगी हैं। हम कैसे संन्यास में उतरें ?' मैं उनसे कहता हूं : तुम फिक्र छोड़ो, भोग तुम जानो। तुम संन्यास में उतरो, संन्यास में अगर स्वाद लग जायेगा, अगर सल्लकी के पत्तों में रस आने लगा तो फिर तुम सोच लेना। फिर नीम के पत्ते तुम्हें छोड़ने या नहीं छोड़ने, वह भी तुम जानो; मैं क्यों तुम्हारी पंचायत में पडूं ! तुम्हें नीम के पत्ते छोड़ने चाहिए, यह भी मैं क्यों कहूं ! अगर सल्लकी के पत्तों का स्वाद छुड़ा दे तो ठीक; अगर न छुड़ाये तो ठीक। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। जैसे ही तुम्हें स्वादिष्ट का अनुभव हो जाता है वैसे ही कड़वे को तुम छोड़ने लगते हो। मैं तुम्हारी झोली हीरे मोतियों से भर देना चाहता हूं। मैं यह नहीं कहता कि तुम्हारी झोली में तुम जो कंकड़-पत्थर सम्हाले हो, उनको फेंको। तुम खुद ही फेंकने लगोगे । एक बार तुम्हें दिखाई भर पड़ जायें हीरे-जवाहरात, तुम एकदम झोली खाली कर दोगे; क्योंकि वही जगह तो फिर हीरे-जवाहरात से भरनी होगी। तुम कंकड़-पत्थर पकड़े बैठे न रहोगे । परमात्मा को पहले पुकारो - संसार अपने से चला जाता है। उसकी तुम चिंता ही न लो। संसार को छोड़ने में लगे तो बड़ी झंझट में पड़ जाओगे । सुख तो मिलेगा ही नहीं; वह जो दुख मिल रहा था, वह भी न मिलेगा । और ध्यान रखना, आदमी खाली रहने से दुखी रहना पसंद करता है । यह तुम्हें बहुत हैरानी का लगेगा, लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान की गहरी निष्पत्तियों में एक निष्पत्ति यह भी है कि आदमी खाली होने की बजाय दुखी होना पसंद करता है, कम से कम कुछ तो है। कुछ तो है, भरे तो हैं - दुख से सही ! तुमने कभी खयाल किया, अगर जीवन में कोई समस्या न हो तो तुम बड़े उदास होने लगते हो। तुम कोई समस्या पैदा कर लेते हो । समस्या पैदा हो जाती है तो तुम उलझ जाते हो; कुछ काम मालूम पड़ता है, व्यस्तता मालूम पड़ती है। लगे तो हो ! खाली बैठे आदमी घबड़ाने लगता है— कुछ भी नहीं ! कुछ भी नहीं हो तो ऐसा लगने लगता है: मैं भी कुछ नहीं करने से, कृत्य से अपनी कुछ परिभाषा बनती है, अपना कुछ व्यक्तित्व निर्मित होता है। चलो यह हर्जा नहीं, अस्पताल में पड़े हैं, बीमार हैं, दुखी हैं, पागल हैं— मगर कुछ तो हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि खालीपन की बजाय आदमी पागलपन पसंद कर लेता है, क्योंकि पागलपन में आखिर कुछ तो रूपरेखा है, सब खो तो नहीं गया। लोग इतना तो कहते हैं कि यह आदमी पागल है । पागलखाने में तो हैं। डाक्टर आकर फिक्र तो करता है। मित्र आकर संवेदना तो बतलाते हैं। लोग बात तो गौर से सुनते हैं। कुछ भी नहीं, ना कुछ, शून्यवत - स्थिति बहुत घबड़ाती है ! प्राण बहुत तड़पते हैं। मैं इसलिए तुमसे कहता हूं : दुख तुम छोड़ न सकोगे, जब तक तुम्हें सुख का स्वाद न लग जाये। 106 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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