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________________ रट जाते हैं। रट जाने से शब्द तुम्हारे चित्त पर घूमने लगते है, लेकिन तुम्हारी अनुभूति इससे निर्मित नहीं होती। 'इति निश्चयी' का अर्थ है : जिसने सुना, जिसने गुना, और फिर जिसने जीवन में प्रयोग किया। अब जब भूख लगे तो देखना। मैं तुमसे नहीं कहता कि दोहराना मैं देह नहीं, मैं कहता हूं जब भूख लगे तो देखना, जागना, थोड़ा होश सम्हालना। देखना, भूख कहां लगी? तत्क्षण तुम पाओगे, भूख शरीर में लगी। यह कोई अष्टावक्र के कहने से थोडे ही, मेरे कहने से थोड़े ही, किसी के कहने से थोड़े ही-यह तो भूख लगती ही शरीर में है, इसको दोहराने की जरूरत नहीं है, सिर्फ जानने की जरूरत है। इसे देखने की जरूरत है, पहचानने की जरूरत है, प्रत्यभिज्ञा चाहिए। जब भूख लगे तो गौर से देखना कि कहां लग रही है? पाओगे, पेट में लग रही है। और गौर से देखना। और तब यह भी देखना कि यह जो देखने वाला है, यह जो देख रहा भूख को लगते, इसको कहीं भूख लग रही है? तुम अचानक पाओगे, वहां कोई भूख का पता नहीं। वहा भूख की छाया भी नहीं पड़ती। जैसे दर्पण के सामने तुम खड़े हो जाते हो तो दर्पण में तुम्हारा प्रतिबिंब बनता है। दर्पण में कुछ बनता थोड़े ही है। दर्पण में कोई अंतर थोड़े ही पड़ता है तुम्हारे खड़े हो जाने से। प्रतिबिंब कुछ है थोड़े ही। तुम हटे कि प्रतिबिंब गया। दर्पण में तो कुछ भी नहीं बना, सिर्फ बनने का आभास हुआ। वह आभास भी तुम्हें हुआ दर्पण को वह आभास भी नहीं हुआ। चैतन्य तो दर्पण जैसा है। उसके सामने घटनाएं घटती हैं, प्रतिबिंब बनते है-बस। घटनाएं समाप्त हो जाती हैं, प्रतिबिंब खो जाते हैं; दर्पण फिर खाली का खाली, फिर अपने अनंत खालीपन में आ गया। वही तो दर्पण की शुद्धि है-उसका अनंत खालीपन। निर्विकार गतक्लेश............., और जिस व्यक्ति को यह निश्चय से प्रतीति हो गई कि सब खेल प्रकृति में चलता है, मैं द्रष्टा मात्र हुँ उसके सब क्लेश समाप्त हो जाते हैं सब विकार शून्य हो जाते हैं। निर्विकार गतक्लेश......: वह विकार-शून्य हो जाता है और समस्त क्लेश के पार हो जाता है-विगत हो जाता है। अब उसे कोई क्लेश नहीं हो सकता। भूख लगे तो भी वह जानता है कि शरीर को लगी। उपाय भी करता है, नहीं कि उपाय नहीं करता। शरीर को भोजन की जरूरत है, यह भी जानता है। लेकिन अब कोई क्लेश नहीं होता। अब दर्पण इस भ्रांति में नहीं पड़ता कि मुझ पर कोई चोट पड़ रही। __काटा लगता है तो शानी भी काटा निकालता है। जहां तक काटा निकालने का संबंध है, ज्ञानी-अज्ञानी में कोई फर्क नहीं। धूप पड़ती है तो ज्ञानी भी छाया में बैठता है। जहां तक छाया में बैठने का संबंध है, ज्ञानी-अज्ञानी में कोई फर्क नहीं। अगर बाहर से तुम देखोगे तो ज्ञानी अज्ञानी में कोई भी फर्क न पाओगे। क्या फर्क है? लेकिन भीतर अनंत फर्क है। बोध का भेद है। जब काटा गड़ता है तो ज्ञानी निकालता है, लेकिन जानता है कि शरीर में घटना घटी; पीड़ा' भी शरीर में है, प्रतिबिंब मुझमें है। फिर काटा निकल जाता, तो पीड़ा से मुक्ति हुई वह भी शरीर में है। पीडा से मुक्ति हुई
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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