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________________ पहला सूत्र-अष्टावक्र ने कहा:'भाव और अभाव का विकार स्वभाव से होता है। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह निर्विकार और क्लेश-रहित पुरुष सहज ही शांति को प्राप्त होता है।' सीधे-सादे शब्द, पर बड़े अर्थगर्भित! भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी। निर्विकारो गतक्लेश सुखेनैवोपशाम्यति।। भावाभावविकार स्वभावात्............:| अष्टावक्र इस पहले सूत्र में कहते हैं कि जो भी पैदा होता है, जो भी बनता है, मिटता है; आता है, जाता है; भाव हो, अभाव हो; सुख हो, दुख हो, जन्म हो, मृत्यु हो; जहां भी आवागमन है, आनाजाना है, बनना-मिटना है-समझना वहा प्रकृति का खेल है। तुममें न तो कभी कुछ उठता, न कभी कुछ गिरता; न भाव न अभाव-तुम सदा एकरस; तुम्हारे होने में कभी कोई परिवर्तन नहीं। सब परिवर्तन बाहर है; तुम शाश्वत, सनातन। सब तरंगें बाहर हैं, तुम तो हो मात्र गहराई, जहां कोई तरंग कभी प्रवेश नहीं पाती। तुम मात्र द्रष्टा हो परिवर्तन के भूख लगी : तुम्हें भूख कभी नहीं लगती, तुम तो मात्र जानते हो कि भूख लगी| भूख तो शरीर में ही लगती है। भूख तो शरीर का ही क्सिंा है। शरीर यानी प्रकृति। शरीर को जरूरत पड़ गई। शरीर तो दीन है। उसे तो प्रतिपल भीख की जरूरत है। उसके पास अपने जीवन को जीने का स्वसंभूत कोई उपाय नहीं है। वह तो उधार जीता है। उसे तो भोजन न दो तो मर जाएगा। उसे तो श्वास न मिले तो समाप्त हो जाएगा। उसे तो रोज-रोज भोजन डालते रहो, तो ही किसी तरह घिसटता है, तो ही किसी तरह चलता है। भूख लगी तो शरीर को भूख लगी। फिर भोजन तुमने किया तो भी शरीर को तृप्ति हुई। भूख का भाव, फिर भूख का अभाव हो जाना दोनों ही शरीर में घटे। तुमने मात्र जाना, तुमने मात्र देखा, तुम केवल साक्षी रहे। तुममें न तो भूख लगी, तुममें न संतोष आया। _ 'भाव और अभाव का विचार स्वभाव से, प्रकृति से होता है। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह निर्विकार और क्लेश-रहित पुरुष सहज ही शांति को प्राप्त होता है। इति निश्चयी-ऐसा जिसने निश्चय से जाना! सुन कर तो तुमने भी जान लिया, लेकिन निश्चय नहीं बनेगा। शास्त्र में तो तुमने भी पढ़ा, लेकिन निश्चय नहीं बनेगा। निश्चय तो अनुभव से बनता है, दूसरे के कहे नहीं बनता। ___मैं तुमसे कहता हूं अष्टावक्र तुमसे कहते हैं कि मूरख शरीर को लगती है तुम्हें नहीं। तुम सुनते हो, शायद थोड़ा बुद्धि का प्रयोग करोगे तो साफ भी हो जाएगी कि बात ठीक है। कांटा तो शरीर में ही गड़ता है, पीड़ा शरीर में ही होती है-पता हमें चलता है; बोध हमें होता है। घटनाएं घटती रहती हैं, हम साक्षी-मात्र हैं। ऐसा बुद्धि से समझ में भी आ जाएगा, लेकिन इससे तुम इति निश्चयी' न बन जाओगे। यह तो बार-बार समझ में आ जाएगा और फिर-फिर तुम भूल जाओगे जब फिर भूख लगेगी, तब अष्टावक्र भूल जाएंगे। तब फिर तुम कहोगे, मुझे भूख लगी। तुम भूल जाओगे। भूख के क्षण में तादात्म्य फिर सघन हो जाएगा, फिर तुम कहोगे मैं भूखा| फिर तुम भोजन करके जब तृप्ति अनुभव
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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