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________________ हद हो गई, ईर्ष्या की भी एक सीमा होती है ! भाषा समझ में न आए तो फिर मनगढ़ंत है सब हिसाब । जब तक समझ में आता है, तब तक अच्छा शब्द, बुरा शब्द: जब समझ में नहीं आता तो सभी शब्द बराबर हैं, कोई अर्थ नहीं है। अर्थ नहीं है शब्दों में-अर्थ माना हुआ है। शब्द तो केवल ध्वनियां हैं - अर्थहीन | जिस दिन यह समझ में आ जाता है कि शब्द तो केवल ध्वनियां हैं अर्थहीन, उस दिन - जीवन में एक बड़ी अभूतपूर्व घटना घटती है। तुम शब्द से मुक्त होते हो, तो तुम समाज से भी मुक्त हो जाते हो। क्योंकि समाज यानी शब्द | बिना शब्द के कोई समाज नहीं है। इसलिए तो जानवरों का कोई समाज नहीं होता, आदमियों का समाज होता है। समाज के लिए भाषा चाहिए। दो को जोड़ने के लिए भाषा चाहिए। अगर दो के बीच भाषा न हो तो जोड़ नहीं पैदा होता। तो भाषा समाज को बनाती है। भाषा आधार है। अब जिस व्यक्ति को सच में ही संन्यासी होना हो, उसे समाज से भागने की कोई जरूरत नहीं; सिर्फ भाषा का जो राग-विराग है, उससे मुक्त हो जाना काफी है। बस इतना जान ले कि शब्द तो मात्र ध्वनियां है-अर्थहीन, मूल्यहीन, न अच्छे हैं, न बुरे हैं। ऐसा जानते ही, तुम अचानक पाओगे तुम मुक्त हो गए समाज से| अब तुम्हें कोई न तो गाली दे कर दुखी कर सकता है, न खुशामद करके तुम्हें प्रसन्न कर सकता है। जिस दिन तुम लोगों के दुख देने और सुख देने की क्षमता के पार हो गए, उस दिन तुम पार हो गए। 'शब्द आदि ऐंद्रिक विषयों के प्रति राग के अभाव से और आत्मा की अदृश्यता से जिसका मन विक्षेपों से मुक्त हो कर एकाग्र हो गया- ऐसा ही मैं स्थित हूं।' आत्मा अदृश्य है। और सब दृश्य है, आत्मा अदृश्य है- होनी ही चाहिए। अगर आत्मा भी दृश्य हो तो किसके लिए दृश्य होगी? आत्मा द्रष्टा है। तुम सब कुछ देखते हो आत्मा से - आत्मा को नहीं देखते। इसलिए तो लोग आत्मा को विस्मरण कर बैठे हैं। आंख से सब दिखाई पड़ता है, बस आंख दिखाई नहीं पड़ती। हाथ से तुम सब पकड़ सकते हो, लेकिन इसी हाथ को इसी हाथ से नहीं पकड़ सकते। आत्मा तो द्रष्टा है। चाहे बाहर लगे इन हरे वृक्षों को देखो, चाहे बैठे जनसमूह को देखो, चाहे अपनी देह को देखो, चाहे आंख बंद करके अपने विचारों को देखो, और गहरे उतरो, भावों की सूक्ष्म तरंगों को देखो-लेकिन तुम तो सदा देखने वाले हो। तुम कभी भी दृश्य नहीं बनते। आत्मा अदृश्य है। आत्मा कभी विषय नहीं बनती - अविषय है। हटती जाती पीछे हटती जाती पीछे। तुम जो भी देखते जाओ, समझ लेना कि वही तुम नहीं हो। तुम तो सिर्फ देखने वाले हो । इसलिए आत्म-दर्शन शब्द झूठा है। आत्मा का कभी दर्शन नहीं होता, किसको होगा? उपयोग के लिए ठीक है, कामचलाऊ है, लेकिन बहुत अर्थपूर्ण नहीं है। दर्शन तो आत्मा का कभी नहीं होता । आत्मा की अनुभूति होती है। जब सभी दृश्य समाप्त हो जाते हैं और देखने को कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ देखने वाला अकेला बचता है, तब ऐसा नहीं होता है कि तुम देखते हो आत्मा को, क्योंकि देखने
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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