SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध होती हैं, क्योंकि लोहे की जंजीरों से तो कोई छूटना भो चाहता है, सोने की जंजीरों से कोई छूटना नहीं चाहता। सोने की जंजीरें तो आभूषण मालूम होती हैं। लगता है छाती पर सम्हाल कर रख लो। अगर कारागृह गंदा हो तो हम निकलना भी चाहते हैं लेकिन कारागह स्वच्छ, साफ-सथरा, सजा, सुंदर हो तो कौन निकलना चाहता है! जा कर भी क्या सार है! जाओगे कहां! यहीं बेहतर है। __ पाप तो बांधता है, पुण्य और भी गहरे रूप से बांध लेता है। और भोग तो बांधता ही है, योग भी बांध लेता है। अष्टावक्र कहते हैं : विरक्त और सरक्त, इन दोनों से जो विलक्षण है, वही उपलब्ध है, वही वीतराग पुरुष है। राग का अर्थ होता है : रंग। रागी का अर्थ होता है : जो इंद्रियों के रंग में रंग गया। विरागी का अर्थ होता है : जो इंद्रियों के विरोधी रंग में रंग गया; जो उल्टा हो गया। रागी खड़ा है पैर के बल; विरागी शीर्षासन करने लगा, उल्टा हो गया, लेकिन दौड़ जारी रही। कोई स्त्री के पीछे भागता था, कोई स्त्री से भागने लगा; लेकिन दौड़ जारी रही। दोनों से जो विलक्षण है, विरक्त-सरक्त से विलक्षण, उस वीतराग पुरुष को ही सत्य का अनुभव हुआ है। और ऐसे सत्य के अनुभव के लिए शास्त्रों की कोई जरूरत नहीं। किसी से पूछने का कोई सवाल ही नहीं है। यह सत्य तुम्हारी संपदा है। यह तुम्हें मिला ही हुआ है। तुम शास्त्रों में खोज रहे हो, उतना ही समय गंवा रहे हो। मल्ला नसरुद्दीन एक बार घर लौटा यात्रा से। उसकी पत्नी ने पूछा, सफर कैसा कटा? मुल्ला ने कहा; सफर में बेहद तकलीफ रही। ट्रेन में ऊपर वाली बर्थ पर जगह मिली थी और पेट खराब होने के कारण बार-बार नीचे उतरना पड़ता था। तो श्रीमती ने कहा. 'तो आप नीचे वाले यात्री से कह कर बर्थ क्यों न बदल लिए?' उसने कहा : 'सोचा तो मैंने भी था, पर नीचे वाली बर्थ पर कोई था ही नहीं, पूछता किससे?' कुछ लोग हैं जो सदा पूछने को उत्सुक हैं-किसी से पूछ लें। और अगर कोई नहीं है तो बड़ी मुश्किल! भीतर से कुछ बोध जैसे उठता ही नहीं! शास्त्र में खोज ले, स्वयं में खोजने की आकांक्षा ही नहीं उठती है। और जो है, स्वयं में है। ये शास्त्र जो निकले हैं, ये भी उनसे निकले हैं जिन्होंने स्वयं में खोजा। यह कृष्ण की गीता किन्हीं और वेदों को पढ़ कर नहीं निकली है। यह कृष्ण की गीता कृष्ण के अनुभव से निकली है। इसका यह अर्श नहीं है कि वेद पढ़ना व्यर्थ है। इसका इतना ही अर्थ है वेद को पढ़ो साहित्य की तरह, बहुमूल्य साहित्य की तरह लेकिन शब्दों को सत्य मत मान लेना। वेद को पढ़ो महत्वपूर्ण परंपरा की तरह। मनीषियों के वचन हैं-सत्कार से पढ़ो, सम्मान से पढ़ो! मगर उन पर ही रुक मत जाना। उन पर रुकना ऐसा होगा जैसे कोई पाकशास्त्र की किताब को रख कर बैठ गया और भोजन बनाया ही नहीं। और भोजन बिना बनाये तो पेट भरेगा नहीं, भूख मिटेगी नहीं, क्षुधा तृप्त न होगी। पढ़ो! रस लो! वेद अदभुत साहित्य हैं! उपनिषद अदभुत साहित्य हैं! कुरान-बाइबिल अनूठी किताबें और
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy