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________________ का अनुभव नहीं है आनंद । व्यक्ति के अभाव में जो घटता है, वही आनंद है। जहां तुम नहीं हो वहीं आनंद है। तुम जहां हो वहीं नर्क है। तुम जहां हो वहीं दुख है। ही, इस दुख के कारण तुम भविष्य में आनंद की अपेक्षा करते हो, आकांक्षा करते हो। तुम होते नर्क में हो और स्वर्ग की योजना बनाते रहते हो। बस यही तुम्हारे जीवन की पूरी कथा है। अथ से लेकर इति तक यही तुम्हारी जीवन-कथा है। हो दुख में, लेकिन अब दुख को कैसे काटो, तो सुख की कल्पना करते रहते हो कि कल होगा, परसों होगा! कभी तो होगा। देर है, अंधेर तो नहीं! कभी तो होगा। कभी तो प्रभु ध्यान देगा! कभी तो फल मिलेगा! प्रतीक्षा व्यर्थ तो न जाएगी! प्रार्थना खाली तो नहीं रहेगी! चेष्टा का कोई तो परिणाम होगा ! आज नहीं, कल होगा। आज झेल लो दुख, कल सुख है! ऐसा मन समझाये रखता है। यह तुम्हारा अहंकार है। और जब वस्तुतः सुख घटता है तो कल नहीं घटता, आज घटता है। लेकिन आज अगर कोई चीज घटानी हो, अभी और यहीं अगर घटानी हो, तो एक ही उपाय है कि अहंकार को हटा कर रख दो। अहंकार समय की यात्रा बन जाता है। अहंकार को हटाते ही आकाश की यात्रा शुरू होती है। यही मैंने पीछे तुमसे कहा। कर्म का सवाल नहीं है। विचार का सवाल नहीं है। आकाश उपलब्ध है अभी और यहीं। तुम जरा पुरानी आदत के ढांचे से हट कर देखो । तुम हो नहीं, है तो परमात्मा ही । तुमने अपने को मान रखा है। मान रखा है तो तुम झंझट में पड़ गये हो। तुम्हारी मान्यता तुम्हारा कारागृह बन गई है। क्रांति सिर्फ मान्यता से मुक्ति है, कुछ वस्तुतः बदलना नहीं है, एक गलत धारणा छोड़नी है। यह मामला ठीक ऐसे ही है जैसे कि तुमने दो और दो पांच होते हैं, ऐसा मान रखा है। अब तुम झंझट में पड़े हो। क्योंकि दो और दो पांच होते नहीं और तुमने सारा खाता बही दो और दो पांच के हिसाब से कर लिया है। अब तुम डरते हो कि सब खाते - बही फिर से लिखना पड़ेंगे। लेकिन जब तक तुम ये खाते –बही बदलोगे न, आगे भी तुम उसी हिसाब से लिखते चले जाओगे, ये खाते-बही बड़े होते जा रहे हैं। यही तो सारे कर्म का जाल है कि दो और दो पांच समझ लिए हैं। दो और दो चार समझते ही क्रांति घट जाती है। तुमने अपने को कर्ता मान लिया है, यही भ्रांति है। तुमने यह मान लिया कि मैं हूं यही भांति है। तुम जरा सोचो खोजो - तुम हो ? बोधिधर्म चीन गया तो चीन के सम्राट ने कहा कि मैं बड़ा अशांत रहता हूं, महामुनि, मुझे शांति का कोई उपाय बतायें! बोधिधर्म बड़ा अनूठा संन्यासी था। उसने कहा. 'शांत होना है? सच कहते हो, शांत होना है?' सम्राट थोड़ा बेचैन हुआ कि यह भी कोई बात पूछने की है मैंने कहा आपसे कि बहुत अशांत हूं शांति का कोई मार्ग बतायें तो बोधिधर्म ने कहा, 'ऐसा करो रात तीन बजे आ जाओ। अकेले आना ! और खयाल रखना, अशांति ले कर आना । खाली हाथ मत चले आना ।' तो वह समझा, सम्राट समझा कि यह तो आदमी पागल मालूम होता है। अशांति ले कर आना ! खाली हाथ मत आ जाना! रात तीन बजे आना ! अकेले में आना ! और यह बोधिधर्म एक बड़ा डंडा भी लिए रहता था। और इस एकांत में इसके इस मंदिर
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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