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________________ ते बंध वा मोक्ष न त्वं सुखं चर! कृतकृत्य हो कर! यह बड़े मजे का शब्द है । कर्ता होने से बचते ही आदमी कृतकृत्य हो जाता है। और हम सोचते हैं. बिना कर्ता बने कैसे कृतकृत्य होंगे, जब करेंगे तभी तो कृतकृत्य होंगे! और करने वाले कभी कृतकृत्य नहीं होते। देखते हो नेपोलियन, सिकंदर ! उनकी पराजय देखते हो ! संसार जीत लेते हैं और फिर भी पराजय हाथ लगती है। धन भर जाता है और हाथ खाली रह जाते हैं। प्रशंसा मिल जाती है और प्राण सूखे रह जाते हैं। अष्टावक्र कहते हैं : कृतकृत्य होना है, कर लेना है जो करने योग्य है साक्षी बन! साक्षी बनते ही तत्क्षण परमात्मा तेरे लिए कर देता है जो करने परेशान हो रहा है। तू व्यर्थ की दौड़ धूप कर रहा है। 'हे चिन्मय, तू चित्त को संकल्पों और विकल्पों से क्षोभित मत कर। शांत हो कर आनंदपूर्वक अपने स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो । मा संकल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मयानदविग्रहे 'हे चिन्मय! हे चैतन्य ! तू चित्त को संकल्पों - विकल्पों से क्षोभित मत कर। ' यह मत सोच : क्या करूं क्या न करूं; क्या मानूं क्या न मानूं कहां जाऊं कहां न जाऊं ! इन संकल्प-विकल्पों में मत पड़। तू तो जहां है वहीं शांत हो जा। जैसा है वैसा ही शांत हो जा। क्या करूं क्या न करूं कि शांति मिले, अगर इस विकल्प में पड़ा तो तू अशांत ही होता चला जाएगा। शांति के नाम पर भी लोग अशांत होते हैं। शांत होना है, यही बात अशांति का कारण बन जाती है। ऐसे लोग मेरे पास रोज आ जाते हैं। वे कहते हैं, शांत होना है; अब चाहे कुछ भी हो जाए, शांत हो कर रहेंगे। उनको यह बात दिखाई नहीं पड़ती कि उनके ही कर्तापन के कारण अशांत हुए अब कर्तापन को शांति पर लगा रहे हैं। अब वे कहते हैं, शांत होकर रहेंगे! अभी भी जिद कायम है। अभी भी टूटी नहीं जिद । अहंकार मिटा नहीं, कर्ता गिरा नहीं । रस्सी जल गई, लेकिन रस्सी की नहीं गई। अब शांत होना है। अब यह नया कर्तृत्व पैदा हुआ। इतना ही तुम जान लो कि तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होता है । फिर कैसी अशांति इतना ही जान लो, तुम्हारे किए क्या कब हुआ कितना तो किया, कभी कुछ हुआ? कभी तो कुछ न हुआ। आशा बंधी और सदा टूटी। निराश ही तो हुए हो। जन्मों-जन्मों में निराशा के अतिरिक्त तुम्हारी संपत्ति क्या है? इसको देख कर जो व्यक्ति कह देता है, अब मेरे किए कुछ न होगा- ऐसे भाव में कि अब मेरे किए कुछ भी न होगा, तो मैं देखूंगा जो होता है, देखूंगा और तो करने को कुछ बचा नहीं देखूंगा चुपचाप बैठ कर ...! तो कर्ता मत बन! तो योग्य है। तू नाही मेरे दादा, मेरे पिता के पिता, बूढ़े हो गए थे। तो उनके पैरों में लकवा लग गया। वे चल भी नहीं सकते थे। लेकिन उनकी पुरानी आदत! तो घसिट कर भी वे दूकान पर पहुंच जाते मकान के भीतर से दूकान पर आ जाते। अब उनकी कोई जरूरत भी न थी दूकान पर। उनके कारण
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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