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________________ आत्मा विस्तार। और इस विस्तार को अनुभव कर लेना ब्रह्म को अनुभव कर लेना है।ब्रह्म' शब्द का अर्थ ही विस्तार होता है-जो फैला हुआ विस्तीर्ण; जो फैलता ही चला जाता है। अलबर्ट आइंस्टीन ने तो अभी इस सदी में आकर यह कहा कि विश्व फैलता चला जाता हैएक्सपैंडिंग यूनिवर्स! इसके पहले सिर्फ हिंदुओं को यह बोध था, किसी को यह बोध नहीं रहा। सारे जगत के दर्शनशास्त्र र सारे जगत के धर्म ऐसा ही मान कर चले हैं कि विश्व जैसा है वैसा ही है, बड़ा कैसे होगा और 2: बड़ा है, लेकिन और बड़ा कैसे होगा? पूर्ण है, तो और पूर्ण कैसे होगा? अपनी जगह है। अलबर्ट आइंस्टीन ने इस सदी में घोषणा की कि जगत रुका नहीं है। बढ़ रहा है, फैल रहा है, फैलता चला जा रहा है। अनंत गति से फैलता चला जा रहा है। बढ़ता ही जा रहा है। हिंदुओं के 'ब्रह्म' शब्द में वह बात है। ब्रह्म का अर्थ है : जो फैलता चला जाता है; विस्तीर्ण होता चला जाता है, जिस पर कभी कोई सीमा नहीं आती; जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं, अंतहीन फैलाव! 'सब आत्मा है, ऐसा निश्चय करके तू संकल्प-रहित हो कर सुखी हो।' अयं स अहं अस्मि अयं अहं न इति विभाग संत्यज़। 'यह मैं, यह मैं नहीं-ऐसे विभाग को छोड़ दे, बोधपूर्वक छोड़ दे।' सर्वम् आत्मा-स्व ही आत्मा है, एक ही विस्तार, एक ही व्यापक! इति निश्चित्य-ऐसा निश्चयपूर्वक जान! त्वं निसंकल्प सुखी भव-और तब तेरे सुख में कोई बाधा न पड़ेगी। क्योंकि जब कुछ और है ही नहीं, त_ ही है, तो शत्रु कहां, मृत्यु कहां! जब कुछ भी नहीं, तू ही है, तो फिर और आकांक्षा क्या! फिर पाने को क्या बचता है! फिर भविष्य नहीं है। फिर अतीत नहीं है। फिर तू सुखी हो सकता है। सुख उस घड़ी का नाम है जब तुमने अपने को सबके साथ एक जान लिया। दुख उस घड़ी का नाम है जब तुम अपने को सबसे भिन्न जानते हो। इसे अगर तुम जीवन की छोटी छोटी घटनाओं में परखोगे तो पहचान लोगे। जहां मिलन है वहां सुख है। साधारण जीवन में भी। मित्र आ गया अनेक वर्षों बाद, गले मिल गये-सुख का अनुभव है। फिर मित्र जाने लगा फिर दुख घिर आया। तुमने गौर किया? जहां मिलन है वहां सुख की थोड़ी प्रतीति है और जहां बिछुड़न है वहां दुख की। मिलन में एक होने की थोड़ी-सी झलक आती है; बिछुड़न में फिर हम दो हो जाते हैं। जिसे तुम प्रेम करते थे, वह पति या पत्नी या मित्र मर गया-दुखी हो जाते हो। नाचे-नाचे फिरते थे, प्रिय तुम्हारे पास था; आज प्रिय मृत्यु में खो गया, आज तुम छाती पीटते हो, मरने का भाव उठने लगता। लेकिन गौर किया, मामला क्या है? मिलन में सुख था, विरह में दुख है। लेकिन ये छोटे-छोटे मिलन-विरह तो होते रहेंगे, एक ऐसा महामिलन भी है, फिर जिसका कोई विरह नहीं। उसी को हम परमात्मा से मिलन कहते हैं।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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