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________________ तुम भी देखते होओगे, तुम्हारा कोई मित्र किसी के प्रेम में पड़ जाता है, तुम सिर ठोक लेते हो. किस औरत के पीछे दीवाने हो ! वहां कुछ भी नहीं रखा है। लेकिन वह दीवाना है। वह कहता है : 'मिल गई मुझे मेरे हृदय की सुंदरी! जिसकी तलाश थी जन्मों-जन्मों से, उसका मिलन हो गया। हम एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। अब तो जोड़ बैठ गया; अब मुझे कोई खोज नहीं करनी, आ गया पड़ाव अंतिम । ' तुम हैरान होते हो कि 'तुम्हारी बुद्धि खो गई, पागल हो गये। कुछ तो अकल से काम लो! कहां की साधारण स्त्री को पकड़ बैठे हो !' लेकिन तुम समझ नहीं पा रहे। जो तुम्हें सुंदर दिखाई पड़े वह दूसरे को सुंदर हो, यह आवश्यक तो नहीं। कोई तुम्हें सुंदर कह जाता है, कोई तुम्हें बुद्धिमान कह जाता है। और हर मां-बाप अपने बेटे को समझते हैं कि ऐसा बेटा कभी दुनिया में हुआ नहीं। तो भ्र पैदा हो जाता है। बेटा अकड़ से भर कर घर के बाहर आता है और दुनिया में पता चलता है, यहां कोई फिक्र नहीं करता तुम्हारी। बड़ी पीड़ा होती है। हर मां-बाप समझते हैं कि बस परमात्मा ने जो बेटा उनके घर पैदा किया है, ऐसा कभी हुआ ही नहीं अद्वितीय ! तुम देखो जरा, मां-बापों की बातें सुनो। सब अपने बेटे - बच्चों की चर्चा में लगे हैं. बता रहे हैं, प्रशंसा कर रहे हैं। अगर वे निंदा भी कर रहे हों तो तुम गौर से सुनना, उसमें प्रशंसा का स्वर होगा कि मेरा बेटा बड़ा शैतान है। तब भी तुम देखना कि उन्हें रस आ रहा है बताने में कि बड़ा शैतान है; कोई साधारण बेटा नहीं है; बड़ा उपद्रवी है! उसमें भी अस्मिता तृप्त हो रही है। तो कुछ मां-बाप दे जाते हैं; कुछ स्कूल, पढ़ाई-लिखाई, कालेज सर्टिफिकेट, इनसे मिल जाता है; कुछ समाज से मिल जाता है-- इस सब से तुम अपनी परिभाषा बना लेते हो कि मैं यह हूंं फिर कुछ जीवन के अनुभव से मिलता है। शरीर के साथ पैदा हम हुए हैं। जब आंख खोली तो हमने अपने को शरीर में ही पाया है। तो स्वभावतः हम सोचते हैं, मैं शरीर हूं। फिर जैसे-जैसे बोध थोड़ा बढ़ा -बोध के बढ़ने का मतलब है मन पैदा हुआ वैसे-वैसे हमने पाया अपने को मन में। तो हम कहते हैं : मैं मन ! यह कोई भी हम नहीं हैं। हमारा होना इन किन्हीं परिभाषाओं में चुकता नहीं। हम मुक्त आकाश की भांति हैं, जिसकी कोई सीमा नहीं है। तो दूसरा सूत्र है. 'यह वह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं ऐसे विभाग को छोड़ दे। विभाग ही भटका रहा है-अविभाग चाहिए। अयं सोहमयं नाहं विभागमिति संत्यज़ सर्वमात्येति निश्चित्य निसंकल्य सुखी भव । 1 'इन सबको सम्यकरूपेण त्याग कर दे। संत्यज!' 'संत्यज' शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। सिर्फ त्याग नहीं, सम्यक त्याग। क्योंकि त्याग तो कभी-कभी कोई हठ में भी कर देता है, जिद में भी कर देता है। कभी-कभी तो अहंकार में भी कर देता है। तुम जाते हो न किसी के पास दान लेने तो पहले उसके अहंकार को खूब फुसलाते हो कि आप महादानी,
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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