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को तो लाना पड़ेगा। और जिस द्रष्टा की परिभाषा में दृश्य को लाना पड़ता है वह दृश्य से अलग कहां रहा? वह एक ही हो गया । दृश्य के गिरते ही द्रष्टा भी गिर जाता है। पहले दृश्य को गिरने दो, फिर दूसरी घटना अपने से घटेगी। तुमने दृश्य खींचा, अचानक तुम पाओगे द्रष्टा भी गया। तब तुम्हें कृष्णमूर्ति का दूसरा वचन समझ में आयेगा. 'दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्द ।' वह जो दृश्य है, द्रष्टा ही है।
और आज के सूत्र में अष्टावक्र भी वही कह रहे हैं। यह सूत्र थोड़ा आगे का है इसलिए अष्टावक्र कम से इसकी तरफ बढ़े हैं। पहले उन्होंने कहा, दृश्य से मुक्त कर लो, फिर द्रष्टा से तो तुम मुक्त हो ही जाओगे। दृश्य और द्रष्टा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
यत्वं पश्यसि तत्र एक? त्वं एव प्रतिभाससे ।
'जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है।
फिर देखते हैं, पूर्णिमा की रात चांद निकला ! हजार-हजार प्रतिफलन बनते हैं। कहीं झील पर, कहीं सागर के खारे जल में, कहीं सरोवर में, कहीं नदी-नाले में, कहीं पानी-पोखर में, कहीं थाली में पानी भर कर रख दो तो उसमें भी प्रतिबिंब बनता है। पूर्णिमा का चांद एक और प्रतिबिंब बनते हैं अनेक लेकिन क्या तुम यह कहोगे, गंदे पानी में बना हुआ चांद का प्रतिबिंब और स्वच्छ पानी में बना चांद का प्रतिबिंब भिन्न-भिन्न हैं? क्या इसीलिए गंदे पानी में बने प्रतिबिंब को गंदा कहोगे क्योंकि पानी गंदा है ? क्या पानी की गंदगी से प्रतिबिंब भी गंदा हो सकता है? प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता। रवींद्रनाथ ने एक स्मरण लिखा है। जब वे पहली-पहली बार पश्चिम से प्रसिद्ध हो कर लौटे, नोबल प्राइज ले कर लौटे, तो जगह-जगह उनके स्वागत हुए। लोगों ने बड़ा सम्मान किया। जब वे अपने घर आये तो उनके पड़ोस में एक आदमी था, वह उनको मिलने को आया। उस आदमी से वे पहले से ही कुछ बेचैन थे, कभी मिलने आया भी न था । लेकिन उस आदमी की आंख ही बेचैन करती थी। उस आदमी की आंख में कुछ तलवार जैसी धार थी कि सीधे हृदय में उतर जाये। वह आया और गौर से उनकी आंख में आंख डाल कर देखने लगा। वे तो तिलमिला गये। और उसने उनके कंधे पकड़ लिये और जोर से हिलाकर कहा, तुझे सच में ही ईश्वर का अनुभव हुआ है? क्योंकि गीतांजलि, जिस पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला, प्रभु के गीत हैं, उपनिषद जैसे वचन हैं। उस आदमी ने उनको तिलमिला दिया। कहा, सच में ही तुझे ईश्वर का दर्शन हुआ है? क्रोध भी उन्हें आया। वह अपमानजनक भी लगा। लेकिन उस आदमी की आंखों की धार कुछ ऐसी थी कि झूठ भी न बोल सके और वह आदमी हंसने लगा और उसकी हंसी और भी गहरे तक घाव कर गई। और वह आदमी कहने लगा, तुझे मुझमें ईश्वर दिखाई पड़ता है कि नहीं 2: यह और मुश्किल बात थी । उसमें तो कतई नहीं दिखाई पड़ता था, और सब में दिखाई पड़ भी जाता । जो फूलमालायें ले कर आये थे, जिन्होंने स्वागत किया था, सम्मान में गीत गाये थे, नाटक खेले थे, नृत्य किये थे उनमें शायद दिख भी जाता । वे बड़े प्रीतिकर दर्पण थे। यह आदमी! वह आदमी खिलखिलाता, उन्हें छोड़कर लौट भी गया ।
रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस रात मैं सो न सका। मुझे मेरे ही गाये गये गीत झूठे मालूम पड़ने