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________________ तुम्हें रस आ जाता है-रस तुम्ही उडेलते हो। किसी दूसरे को जरूरी नहीं कि उसी में रस आ जाये। तुम डोल उठते हो किसी गीत को सुनकर और किसी दूसरे प्राण की वीणा जरा भी नहीं बजती। मनस्विद, तत्वविद, दार्शनिक सदियों से चेष्टा करते रहे हैं परिभाषा करने की-सौदर्य की, शिवम् की, सत्यम् की। परिभाषा हो नहीं पाती। पश्चिम के बहुत बड़े विचारक जी ई मूर ने एक किताब लिखी है, प्रिंसिपिया इथिका। अनूठी किताब है, बड़े श्रम से लिखी गई है। सदियों में कभी ऐसी कोई एक किताब लिखी जाती है। चेष्टा की है शुभ की परिभाषा करने की कि शुभ क्या है। व्हाट इज गुड! दो ढाई सौ पृष्ठों में बड़ी तीव्र मेधा का प्रयोग किया है। और आखिरी निष्कर्ष है कि शुभ अपरिभाष्य है। द गुड इज इनडिफाइनेबल। यह खूब निष्पत्ति हुई सौदर्यशास्त्री सदियों से सौंदर्य की परिभाषा करने की चेष्टा करते रहे हैं, सौंदर्य क्या है? क्योंकि परिभाषा ही न हो तो शास्त्र कैसे बनें! लेकिन अब तक कोई परिभाषा कर नहीं पाया। पूरब की दृष्टि को समझने की कोशिश करो। पूरब कहता है, परिभाषा हो नहीं सकती। क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति का सौंदर्य अलग है। और व्यक्ति-व्यक्ति का शुभ भी अलग है। व्यक्ति वही देख लेता है जो देखने में समर्थ है। व्यक्ति अपने को ही देख लेता है। 'जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है। कृष्णमूर्ति का आधारभूत विचार है : 'द आब्जर्वर इज द आब्जर्द।' वह जो दृश्य है, द्रष्टा ही है। पीछे हमने अष्टावक्र के सूत्रों में समझने की कोशिश की कि जो दृश्य है वह द्रष्टा कभी नहीं है। अब एक कदम और आगे है। इसमें विरोधाभास दिखेगा। किसी ने प्रश्न भी पूछा है कि आप कहते हैं, जो दृश्य है वह द्रष्टा कभी नहीं; और कृष्णमूर्ति कहते हैं, दृश्य द्रष्टा ही है। ये दोनों बातें तो विरोधाभासी हैं, कौन सच है? ये बातें विरोधाभासी नहीं हैं-दो अलग तलों पर हैं। पहला तल है, पहले शान की किरण जब फूटती है तो वह इसी मार्ग से फूटती है, जान कर कि जो दृश्य है वह मुझसे अलग है। समझने की कोशिश करें। तुम जो देखते हो, निश्चित ही तुम देखने वाले उससे अलग हो गये। जो भी तुमने देख लिया, तुम उससे पार हो गये। तुम, जो दिखाई पड़ गया, वह तो न रहे। दृश्य तो तुम न रहे। दृश्य तो दूर पड़ा रह गया। तुम तो खड़े हो कर देखने वाले हो गये। तुम यहां मुझे देख रहे हो तो निश्चित ही तुम मुझसे अलग हो गये। तुम मुझे सुन रहे हो, तुम मुझसे अलग हो गये। जो भी तुम देख लेते छू लेते, सुन लेते, स्पर्श कर लेते, स्वाद ले लेते, जिसका तुम्हें अनुभव होता है, वह तुमसे अलग हो जाता है। यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है। जैसे ही यह सीढ़ी पूरी हो जाती है और तुम दृश्य से अपने द्रष्टा को मुक्त कर लेते हो, तब दूसरी घटना घटती है। पहला तुम्हें करना होता है, रूस अपने से होता है। दूसरी घटना बड़ी अपूर्व है। जैसे ही तुमने दृश्य से द्रष्टा को अलग कर लिया, फिर द्रष्टा द्रष्टा भी नहीं रह जाता। क्योंकि द्रष्टा बिना दृश्य के नहीं रह सकता; वह दृश्य के साथ ही जुड़ा है। जब दृश्य खो गया तो द्रष्टा भी खो गया। तुम द्रष्टा की परिभाषा कैसे करोगे? दृश्य के बिना तो कोई परिभाषा नहीं हो सकती। दृश्य
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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