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________________ तब शायद द्रोण को लगा होगा कि कैसी भ्रांत बात उन्होंने सोच ली थी इसके लिए! सब बच्चे याद करके आ गये थे-सत्य बोलो-जैसा तोता याद कर लेता है। तोते को याद करवा दो, सत्य बोलो, सत्य बोलो, तो दोहराने लगेगा। लेकिन सत्य बोलो, यह दोहराने से सत्य बोलना थोड़े ही शुरू होता है! उससे तो मतलब ही न था किसी को। किसी ने पाठ को उस गहराई से तो लिया ही न था। युधिष्ठिर ने कहा कि प्रभु, अगर पूरे जीवन में यह एक पाठ भी आ जायेगा तो धन्य हो गया! अब दूसरे पाठ तक जाने की जरूरत भी क्या है? सत्य बोलो-बात हो गयी। अब तो मुझे इस पहले पाठ में रम जाने दें, रसमग्न हो जाने दें। तुम सुनते हो-वही शब्द, वही सत्य की ओर इशारे। तुम्हें बार-बार सुन कर लगता है समझ में आ गया। युधिष्ठिर बनो। समझ में तभी मानना जब जीवन में आ जाये। और जब तक तुम्हारे जीवन में न आ जाये, अगर मैं दूसरे पाठों पर बढ़ जाऊं, तो तुमसे मेरा संबंध छूट जायेगा। और फिर एक और अड़चन की बात है। जो मैं तुम्हें सिखा रहा हूं उसमें दूसरा पाठ ही नहीं है, बस एक ही पाठ है। इस पुस्तक में कुल एक ही पाठ है। तुम मुझसे जिस ढंग से चाहो कहलवा लो। कभी अष्टावक्र के बहाने, कभी महावीर के, कभी बुद्ध के, कभी पतंजलि के, कबीर के, मुहम्मद के, ईसा के-तुम जिस ढंग से चाहो मुझसे कहलवा लो। मैं तुमसे वही कहूंगा। पाठ एक है। थोड़े बहुत यहां -वहां फर्क हो जायेंगे तुम्हें समझाने के, लेकिन जो मैं समझा रहा हूं वह एक है। तुम चहो किसी भी उंगली से कहो, मैं जो बताऊंगा वह चांद एक है। उंगलियां पाच हैं मेरे पास, दस हैं कभी से बता दूंगा, कभी इस हाथ से बता दूंगा; कभी एक उंगली से, कभी दूसरी उंगली से; कभी मुट्ठी बांध कर बता दूंगा-लेकिन चांद तो एक है। उस चांद की तरफ ले जाने की बात भी अनेक नहीं हो सकती। तो जो समझ से भरे हैं, जो थोड़े समझपूर्वक जी रहे हैं, वे तो आह्लादित होंगे कि मैं वही वही बात बहुत-बहुत रूपों में उनसे कहे जा रहा हूं। जगह जगह से चोट कर रहा हूं। लेकिन कील तो एक ही ठोकनी है। नये-नये बहाने खोज रहा हूं, लेकिन कील तो एक ही ठोकनी है। लेकिन जो केवल बुद्धि से सुनेंगे और सुन कर समझ लेंगे समझ में आ गया क्योंकि सुन तो लिये शब्द, जान तो लिये शब्द-उनको अड़चन होगी, वे ऊबने लगेंगे। तो एक तो ऊब इसलिए पैदा हो जाती है। दूसरी ऊब का कारण और भी है। जब तुम मेरे पास पहली दफा सुनने आते हो तो अक्सर जो मैं कह रहा हूं उसमें तुम्हारी उत्सुकता कम होती है जिस ढंग से कह रहा हूं उसमें ज्यादा होती है। लोग बाहर जा कर कहते हैं खूब कहा! क्या कहा, उससे मतलब नहीं है। कहने के ढंग से मतलब है। अब ढंग तो मेरा, मेरा ही होगा। रोज-रोज तुम सुनोगे धीरे – धीरे तुम्हें लगने लगेगा कि यह शैली तो पुरानी पड़ गयी। यह भी स्वाभाविक है। अगर तुम्हारा शैली में रस था तो आज नहीं कल ऊब पैदा हो जायेगी। फिर बहुत लोग हैं, जो सिर्फ केवल मैं जो कभी छोटी-मोटी कहानियां बीच में कह देता हूं उन्हीं को सुनने आते हैं। मेरे पास पत्र तक लिख कर भेज देते हैं कि आपने दो-तीन दिन से मुल्ला नसरुद्दीन
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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