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________________ उपादेय क्या! अच्छा क्या! शुभ क्या, अशुभ क्या-जों हो रहा है, हो रहा है। जो हो रहा है, जैसा हो रहा है, वैसा ही होगा। होने दो। न कुछ अच्छा है न कुछ बुरा है। जो हो रहा है, स्वाभाविक है। अगर ऐसी बात खयाल में आ जाये तो परम शांति उदय हो जायेगी। नहीं तो दो तरह की अशांतिया हैं। एक असाधु की अशांति है; वह सोचता है, साधु कैसे बनें? वह चेष्टा में लगा है। हार-हार जाता है। बार-बार आत्मविश्वास खो देता है। बार-बार फिर डुबकी लग जाती है अंधेरे में। फिर तड़पता है, पछताता है, सोचता है : कैसे साधु बनूं? एक साधु है; वह साधु बन गया है, लेकिन भीतर भाव चलता रहता है कि पता नहीं असाधु मजा लूट रहे हो ___मैंने न मालूम कितने साधुओं से मुलाकात की होगी, न मालूम कितने साधुओं को मिला हूं। सदा यह पाया है कि उनके भीतर कहीं न कहीं भीतर यह भाव बना है. 'कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम मूर्ख बन गये हों! अपने हाथ से छोड़ बैठे, दूसरे मजा कर रहे हो!' एक जैन साधु हैं : कनक विजय। एक बार मेरे घर मेहमान हुए। दो-चार दिन जब उन्होंने मुझे समझ लिया और लगा कि मेरे मन में कोई हेय-उपादेय नहीं है, तो उन्होंने कहा : 'अब आपसे एक बात कह दूं। किसी और से तो कह ही नहीं सकता। क्योंकि और तो दूसरे तत्क्षण पकड़ लेंगे कि यह साधु और ऐसी बात! आपसे कह दूं कि मैं नौ साल का था, तब मैं साधु हुआ। मेरे पिता साधु हुए, मां मर गई। अक्सर तो ऐसे ही साधु होते हैं लोग। पत्नी मर गई तो पिता संन्यासी हो गये। अब एक ही बेटा था घर में। अब वह क्या करे! नौ साल का बच्चा। तो उसका भी सिर मूड लिया, उसको भी संन्यासी कर दिया। अब नौ वर्ष का बच्चा संन्यासी हो जाये तो अड़चन तो आने वाली है और वह भी जैन संन्यासी! तो वे हो तो गये हैं साठ साल के, लेकिन उनकी बुद्धि नौ साल पर अटकी है। अटकी ही रहेगी, क्योंकि जीवन का मौका नहीं मिला। जीवन को जानने का अवसर नहीं मिला। भोग की पीड़ा झेलने की सुविधा नहीं मिली। वह झेलना जरूरी है। बुरा करने का अवसर नहीं मिला तो बुरा अटका रह गया है। वह चुभता है। पता नहीं दूसरे लोग मजा लूट रहे हों! नौ साल का बच्चा! तुम थोड़ा सोचो, दूसरे बच्चे आइसक्रीम खा रहे हैं, नौ साल का संन्यासी चला जा रहा है, वह आइसक्रीम नहीं खा सकता। जरा दया करो नौ साल के बच्चे पर! सब सिनेमा के बाहर लाइन लगाये खड़े हैं, बड़े-बड़े दिगज टिकिट खरीदने खड़े हैं, नौ साल का संन्यासी चला जा रहा है, वह टिकिट नहीं खरीद सकता सिनेमा की! उन्होंने मुझसे कहा कि अब आपसे मैं कह दूं किसी और से मैं कह ही नहीं सकता, क्योंकि आपको मैं अनुभव करता हूं कि आप मेरी निंदा न रेंगे। मैंने कहा. तुम कहो, क्या? उन्होंने कहा कि मुझे सिनेमा देखना है। 'पागल हो गये हो? अब साठ साल की उम्र में सिनेमा!' कहने लगे कि बस मेरे मन में यह रहता है किं पता नहीं भीतर क्या होता है! इतने लोग जब देखते हैं और लाइनें लगी हैं और लोग लड़ाई-झगड़ा करते हैं, मार-पीट हो जाती है टिकिट के लिए,
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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