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________________ हैं। देखा बैलगाड़ी का चाक, आरे लगे होते; परिधि पर तो आरे सब अलग होते, लेकिन केंद्र पर जा कर सब जुड़ गये होते हैं। और एक मजा देखा कि चाक घूमता है, कील नहीं घूमती! कील वैसी ही खड़ी रहती है। जिस पर घूमता है, वह नहीं घूमती । अगर कील घूम जाये तो चाक गिर जाये| कील को नहीं घूमना है। यह जो सारा जगत गतिमान है - परमात्मा के शून्य, ठहरे होने पर है। यह तुम्हारा जो शरीर चल रहा है-तुम्हारी आत्मा की कील पर, जो ठहरी हुई है। यह जो शरीर का चाक चलता है-बचपन, जवानी, बुढ़ापा, सुख-दुख, हार-जीत, सफलता-असफलता, मान-अपमान - यह चाक घूमता रहता है। इसके आरे घूमते रहते हैं। लेकिन तुम्हारी कील खड़ी है। उस कील को पहचान लेना समाधिस्थ हो जाना है। और यहां कोई भी भिन्न नहीं है। फर्क देखना । महावीर कहते हैं. स्वयं के और जगत के भेद को जान लेना ज्ञान है। इसलिए महावीर का शास्त्र कहलाता है : भेद-विज्ञान | ठीक-ठीक जान लेना कि पदार्थ मैं नहीं हूं वह जो बाहर है, वह मैं नहीं हूं वह जो जगत है, वह मैं नहीं हूं । अलग हो जाना भेद - विज्ञान है। तुम चकित होओगे यह जान कर कि महावीर की भाषा में योग का अर्थ ही अलग है। महावीर कहते हैं : अयोग को उपलब्ध होना है, योग को नहीं। इसलिए जो परम अवस्था है, उसको कहते हैं : अयोग केवली। निश्चित ही महावीर किसी और ही भाषा का उपयोग कर रहे हैं। पतंजलि कहते है: योग को उपलब्ध होना है। योग यानी दो मिल जायें। और महावीर कहते हैं अयोग को उपलब्ध होना है कि दो अलग हो जायें। पतंजलि विवाह के लिए चेष्टा कर रहे हैं; महावीर तलाक के लिए। दो टूट जायें। अलग- अलग हो जायें। जहां दो टूट गये, जहां जान लिया - शरीर और मैं अलग, संसार और मैं अलग'-वहीं ज्ञान है। आकाश की दृष्टि में-जहां जान लिया सब एक अभिन्न- वहीं ज्ञान है। इसलिए बड़ी कठिनाई होती है, जो लोग जैन शास्त्र के आदी हैं, उनको अष्टावक्र समझना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बड़ी उल्टी बातें हैं। जो लोग अष्टावक्र के आदी हैं, उनको जैन शास्त्र समझना मुश्किल हो जाता है। पारिभाषिक शब्दावली है। अब हिंदुओं के लिए योग से बड़ा कोई शब्द नहीं है। योग बड़ा मूल्यवान शब्द है, महिमावान शब्द है। महावीर के लिए योग ही पाप है। भोग तो पाप है ही। महावीर तो कहते हैं, भोग ही इसलिए चल रहा है कि योग है; तुम जुड़े हो, इसलिए भोग चल रहा है। जोड़ को तोड़ दो। वह जो आइडेन्टिटी है, जोड़ है, उसको तोड़ दो, उखाड़ दो, अलग हो जाओ, बिलकुल अलग हो जाओ! हिंदू कहते हैं : तुम अलग हो, यही तुम्हारा अहंकार है। तुम जुड़ जाओ तुम इस विराट के साथ एक हो जाओ। जरा भी भेद न रह जाये । भेद मात्र खो जाये। अभेद हो जाये । 'हे तात, तू चैतन्यरूप है। तेरा यह जगत तुझसे भिन्न नहीं। इसलिए हेय और उपादेय की कल्पना किसकी, क्यों कर और कहां?' सुनना इस क्रांतिकारी वचन को । अष्टावक्र कहते हैं: फिर क्या बुरा और क्या भला! हेय क्या,
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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