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________________ नहीं आता घड़े में जो तुमने बाजार में खरीदा था, तब था! वह आकाश तो वहीं रह गया। आकाश तो अपनी जगह है। तुम घड़े को ले आये घर। भीतर की खाली जगह तो न आती न जाती कहीं। आत्मा आकाश जैसी है। शरीर का गणधर्म है। शरीर तो घड़ा है-मिट्टी का घड़ा है। तुम गये, तुम चले शरीर चलता है, तुम्हारी आत्मा नहीं चलती है। ऐसा ही समझो, मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सवार था और तेजी से डब्बे में चल रहा शा। किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन मामला क्या है? उसने कहा, मुझे जल्दी पहुंचना है। पसीने से लथपथ हो रहा था। अब ट्रेन का डब्बा भागा जा रहा है; तुम उसमें चलो या बैठो, कोई फर्क नहीं पड़ता। और जब ट्रेन चलती है तो तुम्हारे चलने का कोई प्रयोजन ही नहीं है। तुम थोड़े ही चलते हो ट्रेन चलती है, तुम बैठे रहते हो। तुम तो वही के वही होते हो। तुम्हारा शरीर जब चलता है, तब भी तुम वही के वही होते हो। भीतर कुछ भी नहीं चलता भीतर का शून्य आकाश वैसा का वैसा, वही का वही है। तुम यहां से उठे, वहां बैठ गये, वहां से उठे, कहीं और बैठ गये; गरीब थे, अमीर हो गये; कुछ न थे, राष्ट्रपति हो गये; जमीन पर बैठे थे, सिंहासन पर बैठ गये लेकिन तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह तो कहीं आता-जाता नहीं। उसे पहचानो! वह न भोजन करते, भोजन करता; न राह चलते, चलता; न रात सोते, सोता-सदा वैसा का वैसा है! एकरस! 'गुणों से लिपटा हुआ शरीर आता और जाता; आत्मा न जाने वाली है और न आने वाली है।' इसके लिए सोच का कोई कारण ही नहीं, क्योंकि सोच का कोई अर्थ ही नहीं। यह तो मुल्ला नसरुद्दीन जैसे ट्रेन में चल रहा, ऐसे तुम सोच कर रहे हो। व्यर्थ ही सोच रहे हो। इसका कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे ही यह बात समझ में आ जाती है, सोच छोड़ना नहीं पड़ता, सोच छूट जाता है। अगर [ को यह बात समझ में आ जाए कि तेरे चलने से कुछ अर्थ नहीं होता, ट्रेन चल रही है, उतना ही चलना हो रहा है, तू नाहक अलग से चलने की कोशिश कर रहा है, इससे कुछ जल्दी नहीं पहुंच जायेगा तो मुल्ला बैठ जायेगा। समझ में आ जाये। बस बात समझ की है; कुल की नहीं है, सिर्फ बोध की है। गुण: संवेष्ठित देह: तिष्ठति... गुणों से लिपटा हुआ शरीर निश्चित आत जाता, जन्मता, बचपन, जवानी, बुढ़ापा, बीमारी, स्वास्थ्य, हजार घटनायें घटती-लेकिन भीतर जो छिपा है घड़े के, वह तो वैसा का वैसा है। तुमने देखा, मिट्टी का घड़ा खरीद लाओ, उस पर सोने की पर्त चढ़ा दो, हीरे-जवाहरात लगा दो; मगर भीतर का खालीपन तो वैसा का वैसा है। सोने के घड़े के भीतर तुम सोचते हो किसी और तरह का आकाश होता है? मिट्टी के घड़े से भिन्न होता है? भीतर का सूनापन, भीतर का खालीपन सोने के घड़े में हो कि मिट्टी के घड़े में, एक जैसा है। तो कुरूप देह हो कि सुंदर, क्या फर्क पड़ता है! देह ही ऊपर कुरूप और सुंदर होती है। खूब आवेष्ठित गहनों से हो कि नग्न खड़ी हो कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मा न गता न अहाता किं एनं अनुशोचति
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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