SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गंगा प्रवाहमान है। बहती है हिमालय से महासागर तक। कहीं रुकती नहीं, कहीं ठहरती नहीं। हिंदुओं ने अपने सारे तीर्थ गंगा के किनारे बनाये हैं या नदियों के किनारे बनाये हैं। वे प्रवाह के प्रतीक हैं। वे जीवंतता के प्रतीक हैं। ये जो गंगा में पैसा फेंक रहे हैं, फेंकने वाला ठीक कर रहा है, यह मैं नहीं कह रहा लेकिन इसमें भीतर कहीं कुछ राज तो छिपा है। वह इसे चाहे भूल भी गया है, लेकिन जिसने पहली दफा गंगा में पैसा फेंका होगा, वह यह कह रहा है कि मेरा सब धन तुच्छ है तेरे प्रवाह के सामने। इसका मूल्य तो समझो! मेरा धन तो मुर्दा है, तेरा धन ज्यादा बड़ा है। मैं अपने धन को तेरे धन के सामने झुकाता हूं। मैं अपने धन को तेरे चरणों में रखता हूं। वृक्ष की पूजा में कहीं ज्यादा भगवत्ता का लक्षण है। ईसाई पूजते हैं क्रॉस को-मरी हुई चीज को! वह बढ़ती नहीं। इससे तो बेहतर वृक्ष है; कम से कम बढ़ता तो है; नये पात तो लगेंगे; नये फूल तो खिलेंगे! वृक्ष का कोई भविष्य तो है! और वृक्ष का कुछ ऐश्वर्य भी है। जब फूल खिलते हैं वृक्ष में तो देखा..। जीसस ने अपने शिष्यों से कहा कि देखो खेत में खिले लिली के फूलों को! सोलोमन, सम्राट सोलोमन अपनी परिपूर्ण गरिमा में भी इतना सुंदर न था। और ये फूल लिली के न तो श्रम करते न मेहनत करते, इनकी महिमा कहां से आती है! कौन इन्हें इतना सौंदर्य दे जाता है! कहां से बरसता है यह प्रसाद! ऐश्वर्य तुम्हारा स्वभाव है। भगवान होना तुम्हारी नियति है। तुम अपने ऐश्वर्य को प्रगट करो। तुम अपनी भगवत्ता की घोषणा करो। और ध्यान रखना, तुम्हारी भगवत्ता की घोषणा में सारे अस्तित्व की भगवत्ता की घोषणा छिपी है। कहीं तुमने अपने भगवान होने की घोषणा की और सोचा कि और कोई भगवान नहीं है, मैं भगवान हूं-तो तुम भूल में पड़ गये तो यह अहंकार की घोषणा हो गई। तो यह भगवान से तो तुम बहुत दूर चले गये बिलकुल विपरीत छोर पर पहुंच गये। क्योंकि भगवान होने की घोषणा में तो अहंकार बिलकुल नहीं है। ऐश्वर्य वहीं है जहां तुम नहीं हो। और भगवान वहीं है जहां 'मैं' का सारा भाव खो गया। तब तुम भी भगवान जैसे विराट, असीम अनंत! 'गुणों से लिपटा हुआ शरीर आता है और जाता है। आत्मा न जाने वाली है और न आने वाली है। इसके निमित्त तू किसलिए सोच करता है?' तै: संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च आत्मा न गता नागंता किमेनमनशोचति। 'गुणों से लिपटा हुआ शरीर आता और जाता है। ऐसा समझो कि तुम एक घड़ा बाजार से खरीद कर लाये तो घड़े के भीतर आकाश है-घटाकाश। थोडा-सा आकाश घड़े के भीतर है। जब तुम घर की तरफ चल पड़े तो घड़ा तो तुम्हारे साथ आता है, क्या तुम सोचते हो घड़े के भीतर का आकाश वही रहता है? आकाश बदलता रहता है। आकाश तो अपनी जगह है, कहीं आता-जाता नहीं। तुम्हारा घड़ा तुम खींच कर घर ले आते हो। वही आकाश
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy