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________________ दिनांक 21 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना । सारसूत्र: अष्टावक्र उवाच: सहज है सत्य की उपलब्धि - प्रवचन- ग्यारहवां श्रद्यत्स्व तात श्रघ्दत्स्व नात्र मोह कुस्थ्य भोः । ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृते परः ।। 13311 गणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च। आत्मा न गंता नागता किमेनमनुशोचति ।। 134।। देहस्तिष्ठतु कल्पांतः गच्छत्वद्द्यैव वा पुनः । क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिण ।। 13511 त्वथ्यनन्तमहाम्मोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः । वास्ता न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः ।। 13611 तात चिन्यात्ररूपोऽमि न ते भिन्नमिदं जगत | अथ: कस्थ कथं क्व हेयोपादेय कल्पना ।। 138।। एकस्मिन्नव्यये शांते बिदाकाशेऽमले त्वयि । कुतो जन्म कुछ: कर्म कुतोउहंकार एव च । 1139।। अलबर्ट आइंस्टीन के पूर्व अस्तित्व को दो भागों में बांट कर देखने की परंपरा थी. काल और आकाश; टाइम और काल और आकाश भिन्न-भिन्न नहीं, स्पेस | अलबर्ट आइंस्टीन ने एक महाक्रांति की। उसने कहा, एक ही सत्य के दो पहलू हैं। एक नया शब्द गढ़ा दोनों से 'मिला कर. 'स्पेसियोटाइम' कालाकाश। इस संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है तो ये सूत्र समझने आसान हो जायेंगे। बहुत कठिन है यह बात खयाल में ले लेनी कि समय और आकाश एक ही हैं। आइंस्टीन ने कहा कि समय आकाश का ही एक आयाम, एक दिशा है, एक डायमेंशन है। समय की तरफ से जो जगत देखेंगे उनकी दृष्टि अलग होगी और जो आकाश की तरफ से जगत को देखेंगे उनकी दृष्टि अलग होगी। समय की
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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