SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षण नहीं होते, आजीवन की बात कर रहे हो! जब होता है हाथ में, एक छोटा-सा क्षण होता है। इतना छोटा कि तुमने जाना नहीं कि वह गया। एक क्षण से ज्यादा तो कभी हाथ में होता नहीं। इसलिए तो बुद्ध ने अपनी जीवन-पद्धति को क्षणवाद कहा। कहा कि एक क्षण है तुम्हारे हाथ में और तुम आजीवन का हिसाब बांध रहे हो! दो क्षण तुम्हारे हाथ में कभी इकट्ठे मिलते नहीं। अगर तुम एक क्षण भी तटस्थ और कूटस्थ हो सकते हो तो हो गए सदा के लिए। एक ही क्षण तो मिलेगा जब भी मिलेगा। और तुम्हें एक क्षण में शांत होने की कला आ गई तो सारे जीवन में शांत होने की कला आ गई। अब यह नई चिंता मत पैदा करो। ये मन की तरकीबें हैं। मन नई-नई झंझटें पैदा करता है। अगर तुम शांत हो जाओ तो मन कहता है. इससे क्या होना है? अरे, सदा रहेगा? कल रहेगा? परसों रहेगा? अभी हो गए शांत, मान लिया, घड़ी- भर बाद अशांत हो जाओगे, फिर क्या ?' मन ने यह प्रश्न उठा कर इस क्षण की शांति भी छीन ली। यह प्रश्न में इस क्षण की शांति भी छितर-बितर हो गई, नष्ट हो गई। यह प्रश्न तो बड़ी चालबाजी का हुआ। सुख उठता है, कभी ध्यान में बड़ी महिमा का क्षण आ जाता है, लेकिन मन तत्क्षण प्रश्न-चिह्न लगा देता है कि 'क्या मस्त हुए जा रहे हो, यह कोई टिकने वाला है? सपना है!' दुख पर मन कभी प्रश्न-चिह्न नहीं लगाता, सुख पर सदा लगा देता है। कह देता है' क्षणभंगुर है! ज्यादा मत उछलो-कूदो। ज्यादा मत नाचो। अभी दुख आता है।' और तुमने अगर यह सुन लिया और प्रश्न को स्वीकार कर लिया तो दुख आ ही गया। इस प्रश्न ने 'तुम्हारे चित्त की समस्वरता को तोड़ दिया, वह एकरसता जो बंधती - बंधती होती थी, खो गई। 'आजीवन' का प्रश्न क्यों पूछते हो? यह किसी लोभ से उठती है बात। मन लोभी है। एक क्षण पर्याप्त नहीं है ? काश, तुम्हें यह बात समझ में आ जाए कि एक क्षण ही तुम्हारे पास है, तो एक क्षण में ही शांत हो जाना आ जाना चाहिए। लाओत्सु कहा करता था : एक आदमी तीर्थ-यात्रा को जा रहा था। कई वर्षों से योजना करता था, लेकिन बहाने आ जाते थे, अड़चनें आ जाती थीं, नहीं निकल पाता था। फिर हिम्मतकरके एक रात को निकल पड़ा। ज्यादा दूर भी न था तीर्थ, दस ही मील था - पहाड़ी पर। और सुबह - सुबह जल्दी निकलना पड़ता था, ताकि धूप चढ़े, चढ़ते चढ़ते आदमी पहुंच जाए। तो वह तीन बजे रात निकल पड़ा। गांव के बाहर अपनी लालटेन को लेकर पहुंचा। गाव के बाहर जाकर दिखाई पड़ा-दूर तक फैला हुआ भयंकर अंधकार उसे एक शंका उठी कि यह छोटी-सी लालटेन, तीन-चार कदम इससे रोशनी पड़ती है, दस मील के अंधेरे को यह काट सकेगी? वह बैठ गया। उसने कहा. 'यह तो खतरा लेना है। दस मील लंबा अंधेरा है, सारे पहाड़ अंधेरे से भरे हैं! मैं इस छोटी-सी लालटेन के भरोसे निकल पड़ा हूं। यह हो नहीं सकता। उसने गणित बिठाया । दूकानदार था, गणित लगाना आता था। उसने कहा : 'तीन-चार कदम रोशनी पड़ती है, दस मील का अंधेरा है- सोचो भी तो यह हल कैसे होगा?' वह उदास बैठा था, तभी उससे भी छोटी रोशनी लिए हुए एक आदमी पास से निकला। उसने कहा. 'भाई, कहां जाते हो? भटक जाओगे, और तुम्हारी रोशनी तो मुझसे भी छोटी है, छोटी-सी लालटेन
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy