SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी नमाज पढ़ रहा हो, प्रार्थना कर रहा हो तो इस तरह तो अभद्र व्यवहार नहीं करना चाहिए। फिर मैं सम्राट हूं ! सम्राट नमाज पढ़ रहा है और तूने इस तरह का व्यवहार किया ।' उसने कहा. ' क्षमा करें, मुझे पता नहीं कि आप वहा थे। मुझे पता नहीं कि कोई नमाज पढ़ रहा था। लेकिन सम्राट, एक बात पूछनी है। मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं तो मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है। मेरा प्रेमी राह देखता होगा तो मेरे तो प्राण वहा अटके हैं। तुम परमात्मा की प्रार्थ कर रहे थे, मेरा धक्का तुम्हें पता चल गया! यह कैसी प्रार्थना? यह तो अभी प्रेम भी नहीं है, यह प्रार्थना कैसी? तुम लवलीन न थे, तुम मंत्रमुग्ध न थे, तुम डूबे न थे, तो झूठा स्वांग क्यों रच रहे थे? जो परमात्मा के सामने खड़ा हो, उसे तो सब भूल जाएगा। कोई तुम्हारी गर्दन भी उतार देता तलवार से तो भी पता न चलता तो प्रार्थना । मुझे तो कुछ भी याद नहीं। क्षमा करें!' अकबर ने अपनी आत्मकथा में घटना लिखवाई है और कहा है कि उस दिन मुझे बड़ी चोट पड़ी। सच में ही, यह भी कोई प्रार्थना है? यह तो अभी प्रेम भी नहीं । प्रेम का ही विकास, आत्यंतिक विकास, प्रार्थना है। अगर तुम्हें किसी व्यक्ति के भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे और किसी के भीतर तुम्हें अपनी ही झलक मिलने लगे तो प्रेम की किरण फूटी। तुम जिसे अभी प्रेम कहते हो, वह तो मजबूरी है। उसमें प्रार्थना की सुवास नहीं है। उसमें तो भूखी इंद्रियों की दुर्गंध है। लहर सागर का नहीं श्रृंगार उसकी विकलता है। गंध कलिका का नहीं उदगार उसकी विकलता है। कूक कोयल की नहीं मनुहार उसकी विकलता है। गान गायक का नहीं व्यापार उसकी विकलता है। राग वीणा की नहीं झंकार उसकी विकलता है। अभी तो तुम जिसे प्रेम कहते हो, वह विकलता है। वह तो मजबूरी है, वह तो पीड़ा है। अभी तुम संतप्त हो। अभी तुम भूखे हो । अभी तुम चाहते हो कोई सहारा मिल जाए। अभी तुम चाहते हो कहीं कोई नशा मिल जाए। इसे मैंने प्रेम नहीं कहा। प्रेम तो जागरण है। विकलता नहीं, विक्षिप्तता नहीं। प्रेम तो परम जाग्रत दशा है। उसे ध्यान कहो । अगर तुमने प्रेम की मेरी बात ठीक से समझी तो यह प्रश्न उठेगा ही नहीं कि अगर प्रेम से सत्य मिल सकता है तो फिर ध्यान की क्या जरूरत है? प्रेम से सत्य मिलता है तभी जब प्रेम ही ध्यान का एक रूप होता है, उसके पहले नहीं ।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy