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________________ मानो जो कुछ सुना था, सपने की कहानी थी। जब ऐसी प्रतीति आ जाए, तब तुम तैयार हुए सदगुरु के पास आने को । उसके पहले तुम आ जाओगे, सुन लोगे, समझ भी लोगे बुद्धि से; लेकिन जीवन में कृतार्थता न होगी । सदगुरु के पास आने का तो एक ही अर्थ है कि तुम अनंत की यात्रा पर जाने को तत्पर हुए। सीमित से ऊब गये, सीमा को देख लिया। बाहर से थक गये; देख लिया, बाहर कुछ भी नहीं है, खाली के खाली रहे। सिकंदर बन कर देख लिया, हाथ खाली के खाली रहे। तब अंतर की यात्रा शुरू होगी। देख लिया जो दिखाई पड़ता था; अब उसको देखने की आकांक्षा होती है जो दिखाई नहीं पड़ता और भीतर छिपा है: 'शायद जीवन का रस और रहस्य वहा हो!' लेकिन जिसकी आख में अभी बाहर का थोड़ा-सा भी सपना छाया डाल रहा है, वह लौट - लौट आयेगा । यही तो होता है। तुम ध्यान करने बैठते हो, आख बंद करते हो; आख तो बंद कर लेते हो, लेकिन मन तो बाहर भागता रहता है - किसी का भोजन में, किसी का स्त्री में, किसी का धन में, किसी का कहीं, किसी का कहीं । तुमने खयाल किया, ऐसे चाहे खुली आख तुम्हारा मन इतना न भाग हो, हजार कामों में उलझे रहते हो, मन इतना नहीं भागता, ध्यान करने बैठे कि मन भागा। ध्यान करते ही मन एकदम भागता है, सब दिशाओं में भागता है। न मालूम कहा- कहा के खयाल पकड़ लेता है! न मालूम किन-किन पुराने संचित संस्कारों को फिर से जगा लेता है! जिन बातों से तुम सोचते थे कि तुम छूट गये, वे फिर पुनरुज्जीवित हो जाती हैं। आख बंद करते ही! साफ पता चल जाता है कि तुम्हारा राग अभी बाहर से बंधा हुआ है। चिर सजग आंखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना ! जाग तुझको दूर जाना । अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कैप हो ले या प्रलय के आंसुओ में मौन अलसित व्योम रौले आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले बांध – लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले? पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले? विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन क्या डुबा देंगे तुझे ये फूल के दल ओस - गीले? तू न अपनी छाव को अपने लिए कारा बनाना ! चिर सजग आंखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना !
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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