SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिसका अपना एक जीवन- अनुशासन है। स्वच्छंद का अर्थ होता है : न तो तुम्हारी मान कर उठता है, न अपनी मान कर उठता है; परमात्मा के उठाए उठता है, परमात्मा के बैठाए बैठता है; न तो तुम्हारी फिक्र करता है, न अपनी फिक्र करता है; न तो बाहर देखता है कि कोई मुझे चलाए, न भीतर से इंतजाम करता चलाने का; इंतजाम ही नहीं करता, योजना ही नहीं बनाता-सहज, जो हो जाए जैसा हो जाए...| तो जनक कहते हैं : जो हो जाता है वैसा कर लेते हैं, जो परमात्मा करवाता है वैसा कर लेते हैं। स्वच्छंद का अर्थ होता है : जो स्वभाव के साथ इतना लीन हो गया कि अब योजना की कोई जरूरत नहीं पड़ती; प्रतिपल, जो स्थिति होती है उसके उत्तर में जो निकल आता है निकल आता है, नहीं निकलता तो नहीं निकलता, न पीछे देख कर पछताता है और न आगे देख कर योजना बनाता है। वर्तमान के क्षण में समग्रीभूत भाव से जो जीता है, वही स्वच्छंद है। कैसे समझोगे तुम स्वच्छंदचारी को? जब तक तुम्हारे भीतर का स्वच्छंद, तुम्हारे भीतर का गीत तुम गुनगुनाने न लगो जब तक तुम्हारी समाधि के फूल न लगे, तब तक असंभव है। कथ्य का प्रेय अकथ पंथ का ध्येय अपथ कहने की सारी चेष्टा उसके लिए है जो कहा नहीं जा सकता। कथ्य का प्रेय अकथ उल्टा लगता है; लेकिन कहने की सारी चेष्टा उसी के लिए है जिसे कहने का कोई उपाय नहीं है। पंथ का ध्येय अपथ और सारे पंथ इसीलिए हैं कि एक दिन ऐसी घड़ी आ जाए कि कोई पंथ न रह जाए। अपथ! अपथचारी स्वच्छंद है। फिर कोई मार्ग नहीं है, फिर कोई पथ नहीं। पाथलेस पाथ! सभी मार्ग इसीलिए आदमी स्वीकार करता है कि किसी दिन मार्ग-मुक्त हो जाए। वर्ष नव, हर्ष नव, जीवन-उत्कर्ष नव नव उमंग, नव तरंग, जीवन का नव प्रसंग नवल चाल, नवल राह, जीवन का नव प्रवाह गीत नवल, प्रीत नवल, जीवन की रीति नवल जीवन की नीति नवल, जीवन की जीत नवल! तब फिर सब नया है प्रतिपल। जो स्वच्छंदता से जीता है उसके लिए कुछ भी कभी पुराना नहीं। क्योंकि अतीत तो गया, भविष्य आया नहीं-बस यही वर्तमान का क्षण है! इस क्षण में जो होता है, होता है; जो नहीं होता, नहीं होता। नहीं किए के लिए पछतावा नहीं है; जो हो गया, उसकी कोई स्पर्धा, स्पृहा, उसकी कोई आकांक्षा नहीं। दर्पण की भांति साक्षी बना जाग्रत पुरुष देखता रहता है; कर्ता नहीं बनता है। कर्म का प्रवाह आता-जाता; जैसे दर्पण पर प्रतिबिंब बनते हैं। गंदे से गंदा आदमी भी दर्पण को गंदा थोड़े ही कर पाता है! तुम यह थोड़े ही कहोगे कि गंदा
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy