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________________ 'बंध –मुक्ति के जानने पर मुझे मुक्ति के लिए भी चिंता नहीं।' अब चिंता क्या! ध्यान रखना, पहले लोग संसार की चिंता में उलझे रहते हैं, फिर किसी तरह संसार की चिंता से छूटे तो दूसरी चिंता शुरू होती है, मगर चिंता नहीं छटती। अब मोक्ष की चिंता पकड़ लेती है कि अब मुक्त कैसे हों! मोक्ष कैसे मिले! और चिंता के कारण ही मुक्ति नहीं हो पाती है। चिंतित चित्त, उद्वेलित चित्त, कंपता हुआ चित्त प्रभु का दर्पण नहीं बन पाता। सब चिंता जाए.। ___ इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मोक्ष की भी फिक्र छोड़ो। मोक्ष अपनी फिक्र खुद कर लेगा। तुम परमात्मा को भी मत खोजो। परमात्मा तुम्हें खोज लेगा। तुम कृपा करके बैठे रहो। तुम अब कुछ भी मत खोजो। क्योंकि सब खोज में आशा है। सब आशा में निराशा छिपी है। सब खोज में सफलता का अहंकार है और विफलता की पीड़ा है। सब खोज में भविष्य आ जाता है, वर्तमान से संबंध टूट जाता है और जो है, अभी है, यहां है, वर्तमान में है। तुम जैसे हो ऐसे ही. जनक ने कहा : तुम जैसे हो ऐसे ही बैठे रही, शांत हो रहो। देखो जो हो रहा है। साक्षी हो जाओ। विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे। जान लोगे ईश्वर को भी, परमात्मा को भी, क्योंकि तुम्हारा जो साक्षी– भाव है वह ईश्वर का अंश है। तुम्हारे भीतर जो साक्षी है वह ईश्वर की ही किरण है। लेकिन लोग एक बीमारी से दूसरी बीमारी पर चले जाते हैं। बीमारी से ऐसा मोह है कि बीमारी छूटती ही नहीं। शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में थी मुझे घेरे बनी जो कल निराशा आज आशंका बनी, कैसा तमाशा! एक से हैं एक बढ़ कर पर चुभन में शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में स्वप्न में उलझा हुआ रहता सदा मन एक ही उसका मुझे मालूम कारण विश्व सपना सच नहीं करता किसी का प्यार से प्रिय, जी नहीं भरता किसी का। तो पहले सांसारिक चीजों से प्यार चलता है, फिर किसी तरह वहा से ऊबे, हटे, तो परलोक से प्यार बन जाता है। प्यार से प्रिय, जी नहीं भरता किसी का शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में। पहले तुम किसी को पाना चाहते, तब परेशानी; फिर पा लेते, तब परेशानी। मैंने सुना है कि एक आदमी पागलखाने गया था। एक कोठरी में एक आदमी बंद था, अपना
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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