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________________ ना-कुछ होने में भी दावे रहते हैं! 'कोन ना-कुछ होने का दावा कर रहा है? पोस्टमैन! ना- कुछ हो ही, दावा क्या कर रहे हो?' जिन्होंने धन छोड़ा है, फिर निर्धनता में स्पृहा शुरू होती है कि कोन बड़ा त्यागी । कोन बड़ा त्यागी! कोन ज्यादा विनम्र ! अगर तुम किसी विनम्र साधु को जा कर कह दो कि आपसे भी ज्यादा विनम्र एक आदमी मिल गया, तो तुम देखना उसकी आख में, लपटें जल उठेगी! 'मुझसे विनम्र ! हो नहीं सकता!' वही स्पर्धा, वही दौड़, वही अहंकार ! कोई फर्क नहीं पड़ता । तुम साधुओं में जा कर थोड़ा घूमो तो तुम चकित होओगे वही अहंकार, वही दौड़ ! जरा भेद नहीं है। वही अकड़ । अकड़ का नाम बदल गया, अब अकड़ का नाम विनम्रता है। अकड़ का नाम बदल गया, अकड़ नहीं बदली। रस्सी जल भी जाती है तो भी ऐंठन नहीं जाती । 'स्पृहा मेरी नष्ट हो गई है, तब मेरे लिए कहां धन, कहां मित्र, कहां विषय-रूपी चोर हैं? कहा शास्त्र और कहां ज्ञान ?' बहुत अनूठा वचन है जब स्पृहा ही चली गई तो अब ज्ञान की भी कोई चिंता नहीं है, नहीं तो ज्ञान में भी स्पृहा है - कोन ज्यादा जानता है! तुम ज्यादा जानते हो कि मैं ज्यादा जानता हूं?" तुमने देखा, जब तुम बात करते हो लोगों से तो हरेक अपना ज्ञान दिखलाने की कोशिश करता है! उसी में विवाद खड़ा होता है। कोई यह मानने को राजी नहीं होता कि तुमसे कम जानता है। प्रत्येक ज्यादा जानने का दावेदार है। और कोई यह मानने को तैयार नहीं कि अज्ञानी हूं। ज्ञान अहंकार को खूब भरता है। ज्ञान भोजन बनता है अहंकार का । लेकिन स्पृहा चली गई तो कैसा ज्ञान और कैसा शास्त्र ? फिर गए कुरान, बाइबिल, वेद, गीता-सब गए; वह सब भी अहंकार की दौड़ है - बडी सूक्ष्म दौड़ है। एक आदमी धन इकट्ठा करता है, एक आदमी ज्ञान इकट्ठा करता है; लेकिन दोनों का इकट्ठा करने में मोह है। तुमने देखा, स्कूलों - कालेजों में वचन लिखे हैं! मैं एक संन्यासी के आश्रम गया तो दीवाल पर, जहां वे बैठे थे, पीछे एक वचन लिखा था कि ज्ञानी की सर्वत्र पूजा होती है! मैंने उनसे पूछा ये वचन लिखे किसलिए बैठे हो ? ज्ञानी की सर्वत्र पूजा होती है? जिसको पूजा की आकांक्षा है वह तो ज्ञानी ही नहीं। और जब आकांक्षा चली गई, फिर पूजा हो या न हो, फर्क क्या पड़ता है? यह किसके लिए लिखाहै? यह तो कुछ फर्क न हुआ। कुछ लोग धन इकट्ठा कर रहे हैं तो धनी की कहीं पूजा होती है। राजा की अपने देश में पूजा होती है। ज्ञानी की सर्वत्र पूजा होती है। मतलब वही रहा। कोई धन इकट्ठा करके पूजा पाना चाहता है, लेकिन ज्ञानी कह रहा है : तुम्हें कुछ ज्यादा पूजा नहीं मिल वाली। कोई राजा होकर पूजा इकट्ठी करना चाहता है; ज्ञानी कह रहा है : तुम भी अपने देश में ही पा लो पूजा, दूसरी जगह न मिलेगी। लेकिन ज्ञानी सर्वत्र, सर्व लोक में, जहां चला जाए वहीं पूजा होती है। लेकिन पूजा की आकांक्षा! पूजा हो, इसका भाव ! तो फिर अहंकार की ही सूक्ष्म दौड़ है। और जो ज्ञानको संग्रह करने में लग गया वह ज्ञान से भीतर है, बाहर से संग्रह नहीं करना है। जो बाहर से आता है, वंचित रह जाता है। क्योंकि ज्ञान तुम्हारे ज्ञान नहीं - उधार, कूड़ा-कर्कट, कचरा
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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