SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहोगे, कब तक निहारते रहोगे? द्वार खुले हैं, प्रवेश करो। 'अभी संन्यास नहीं लिया है और न व्यक्तिगत रूप से आपसे मिला ही हूं । शायद व्यक्तिगत रूप से मिलने में भी डर होगा। और सम्हल कर ही मिलना, कि आए कि मैंने संन्यास दिया! तुम छिपा न सकोगे। प्रेम कहीं छिपा ? तुम लाख उपाय करणें छिपा न सकोगे। मेरे सामने आए कि मैं पहचान ही लूंगा, कि यही हो तुम जो रो रहे थे, कि यही हो तुम जो निहार रहे थे। तो सोच कर ही आना ! वस्तुतः मेरे सामने तुम आते ही तब हो, जब तुम्हारे जीवन में समर्पण की तैयारी हो गई; तुम छोड़ने को राजी हो तुम नत होने को तैयार हो तुम मेरे शून्य के साथ गठबंधन करने को तैयार हो। यह भी एक भांति का विवाह है। ये भी सात फेरे हैं। यह जो माला तुम्हारे गले में डाल दी है, यह कोई फांसी से कम नहीं है। यह तुम्हें मिटाने का उपाय है। ये जो वस्त्र तुम्हारे गैरिक अग्नि के रंगों में रंग दिए, ये ऐसे ही नहीं हैं, यह तुम्हारी चिता तैयार है। तुम मिटोगे तो ही तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव होगा। संन्यास साहस है-अदम्य साहस है। और मेरा संन्यास तो और भी । क्योंकि इसके कारण तुम्हें कोई समादर न मिलेगा। इसके कारण तुम्हें कोई पूजा, शोभा यात्रा, कोई जुलूस, कुछ भी न होगा। इसके द्वारा तो तुम जहां जाओगे वहीं अड़चन, वहीं झंझट होगी, पत्नी, बच्चे, पिता, मां, परिवार, दूकान, ग्राहक-जहां तुम जाओगे वहीं अड़चन होगी । यह तो मैं तुम्हारे लिए सतत उपद्रव खड़ा कर रहा हूं । लेकिन इस उपद्रव को अगर तुम शांतिपूर्वक झेल सके तो इसी से साक्षी का जन्म हो जाएगा। इस उपद्रव को अगर तुम मेरे प्रेम के कारण झेलने को राजी रहे, तो इसी से भक्ति का जन्म हो जाएगा। मेघ गरजा, घोर नभ में मेघ गरजा । गिरी बरखा प्रलय रव से गिरी बरखा । तोड़ शैलों के शिखर बहा कर धारें प्रखर ले हजारों घने धुंधले निर्झरों को कह रही है वह नदी से उठ, अरी उठ ! कई जन्मों के लिए तू आज भर जा मेघ गरजा । यह जो मैं तुमसे निरंतर पुकार कर रहा हूं कि उठो भर लो अपने को.... उठ, अरी उठ !
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy