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________________ प्रार्थना करनी मुझे है और इसे स्वीकारना, संभव बनानासरल उतना ही तुम्हें है यह कि तुम जिस ओर आओ, चलूं मैं भी यह कि तुम जो राह थामो, रहूं थामे हुए मैं भी यह कि कदमों से तुम्हारे कदम अपना मैं मिलाए रहूं यह कि तुम खींचो जिधर को, खिंचूं जिससे 'तुम मुझे चाहो बचाना, बधू यानी कुछ न देखूं कुछ न सोचूं कुछ न अपने से करूं मुझसे यह न होगा। छूटने को, विलग जाने, ठोकरें खाने, लुड़कने गरज अपने आप करने के लिए कुछ विकल चंचल आज मेरी चाह है। प्रार्थना भी आदमी करता है कि हे प्रभु, तू जैसा कराए वैसा ही हम करें। तेरी जैसी मर्जी, वही पूरी हो। कहते हैं लोग : उसकी मर्जी के बिना पता भी नहीं हिलता ।' लेकिन फिर भी कहीं भीतर अहंकार घोषणा करता है : मुझसे न होगा छूटने को, विलग जाने, ठोकरें खाने, लुड़कने गरज अपने आप करने के लिए कुछ विकल चंचल आज मेरी चाह है। अहंकार निरंतर कोशिश करता है: 'कुछ अपने से करके दिखा दूं! कर्ता हो कर दिखा दूं!' यह कर्ता होने की चाह समस्त नर्क का आधार है, स्रोत है। तुम कितना ही करो, जो होना है वही होता है। कभी सफलता होती है जरूर, कभी असफलता भी होती है जरूर–लेकिन सयोगवशांत। न तो तुम सफलता अपने हाथ से ला सकते हो और न तुम विफलता अपने हाथ से ला सकते हो। तुम्हारी लाख चेष्टा करने पर भी कभी तुम विफल हो जाते हो और कभी निश्चेष्ट पड़े रहने पर भी सफल हो जाते हो। कभी इस पर तुमने देखा ? अभी मैं विश्वविद्यालय में एम ए का विद्यार्थी था। मेरे जो प्रोफेसर थे, अब तो चल बसे, अभीकुछ वर्ष पहले चल बसे। उनका मुझ पर बड़ा लगाव था । और वे कहते, तुम जरा मेहनत करो तो गोल्ड मैडल तुम्हारा है, तुम घंटा भर भी दे दो पढ़ने को तो गोल्ड मैडल तुम्हारा है। मैं उनसे कहता, मिलना होगा तो मिल कर रहेगा। उनको यह बात जंचती न। वे कहते, ऐसे कैसे मिल कर रहेगा? तुम कुछ करोगे तो ही मिलेगा; कुछ न करोगे तो कैसे मिलेगा?
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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