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________________ गंदा नहीं कर पाता, न छूता । इतने बादल उठते हैं, सब धुआं हैं; फिर-फिर खो जाते हैं। कितनी बार बादल उठे हैं और कितनी बार खो गये हैं- आकाश तो जरा भी मलिन नहीं हुआ। न तो शुभ्र बादलों से स्वच्छ होता है, न काले बादलों से मलिन होता है। जनक कहते हैं उस पद को जानने वाले का अएंतःकरण ऐसे ही हो जाता है जैसे आकाश । ' तन्दास्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो हयन्तर्न जायते । न हयकाशस्य धूमेन दृश्यमानोऽपि संगतिः जैसे धुएं के संग से आकाश अछूता, कुआरा बना रहता - अस्पर्शित - वैसे ही ज्ञानी के साक्षीभाव का आकाश किसी भी चीज से धूमिल नहीं होता। उसकी प्रभा, वह भीतर की ज्योति धूम - रहित जलती है। न महल उसे अमीर करते और न झोपड़े उसे गरीब करते । न सिंहासनों पर बैठ कर स्वर्ण उसे छूता; न मार्गों पर भिखारी की तरह भटक कर दीनता उसे छूती । 'जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी क स्फुरणा के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?' बड़ा अनूठा सूत्र है अब । हि आकाशस्य संगतिः दृश्यमाना अपि धूमेन ना अपनी 'आकाश जैसा हो गया जो धुआं जिसे अब छूता नहीं...। 'जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है. । ' T 'मैं मिटा कि फिर भेद न रहा। जैसे मकान के आसपास तुम बागुड़ लगा लेते हो, तो पड़ोसी से भिन्न हो गये। फिर बागुड़ हटा दी, बागुड़ जला दी - जमीन तो सदा एक ही थी, बीच की बागुड़ लगा रखी थी, वह हटा दी, तो तत्क्षण तुम सारी पृथ्वी के साथ एक हो गये। मैं की बागड़ है। 'मैं' की हमने एक सीमा खींच रखी है अपने चारों तरफ, एक लक्ष्मण-रेखा खींच रखी है, जिसके बाहर हम नहीं जाते और न हम किसी को भीतर घुसने देते हैं। जिस दिन तुम इस लक्ष्मण-रेखा को मिटा देते हो-न फिर कुछ बाहर है, न कुछ फिर भीतर है, बाहर और भीतर एक हुए। बाहर भीतर हुआ भीतर बाहर हुआ। तुमने मकान बना लिया है ईंट की दीवालें उठा लीं, तो आकाश बाहर रह गया, कुछ आकाश भीतर रह गया। किसी दिन दीवालें तुमने गिरा दीं, तो फिर जो भीतर का आकाश है, भीतर न कह सकोगे उसे जो बाहर का है, उसे बाहर न कह सकोगे। बाहर और भीतर तो दीवाल के संदर्भ में सार्थक थे। अब दीवाल ही गिर गयी तो बाहर क्या? भीतर क्या? कैसे कहो बाहर? कैसे कहो भीतर ? दीवाल के गिरते ही बाहर - भीतर भी गिर गया। एक ही बचा । 'जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनुसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?" आत्मवेदं जगत्सर्वं ज्ञात येन महात्मना । यदृच्छया वर्तमान तं निषेद्धुं क्षमेत कः । । किसकी क्षमता है? कैसे कोई रोकेगा?
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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