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________________ अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति। आश्चर्य है हंत, कि योगी वहां बैठा है-उस परम अवस्था में जिसके लिए देवता भी दीन हो रहे हैं और फिर भी हर्ष को प्राप्त नहीं होता। उसकी सारी दीनता खो गयी है। इसे समझना। जब तक तुम सुखी हो सकते हो तब तक तुम ठुषी भी हो सकते हो। सुख-दुख साथ-साथ हैं-रात-दिन की भांति। तुम एक को न बचा सकोगे। तुम यह न कर सकोगे कि हर्ष तो बच जाये, दुख खो जाये। तुम यह न कर सकोगे. दिन ही दिन बचें और रातें समाप्त हो जायें। दिन बचाओगे, रातें भी रहेंगी। सुख बचाओगे, दुख भी रहेगा। जन्म बचाओगे, मौत भी रहेगी। मित्र बचाओगे, शत्रु भी रहेंगे। वंद्व से तुम बाहर जा न सकोगे। जिस दिन तुम देखोगे कि ये तो दोनों जुड़े हैं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उस दिन पूरा सिक्का हाथ से गिर जाता है। योगी उस पद पर बैठा है जिसकी बड़े -बड़े देवता भी आकांक्षा कर रहे हैं। लेकिन फिर भी हर्ष को उपलब्ध नहीं होता है। 'वह उस पद पर स्थित हुआ भी, जरा भी हर्ष को उत्पन्न नहीं होता। ' क्यों? क्योंकि जो उस पद पर मिला है, वह तो स्वभाव है। उसके लिए हर्ष क्या? जो मिलना ही चाहिए वही मिला है। जो मिला ही हुआ था वही मिला है। जिसको भूल से समझा था कि खो गया, वही मिला। खोया तो कभी भी न था। हर्ष क्या है? अपनी स्वयं की संपत्ति पाकर हर्ष कैसा? जनक कहते हैं : आश्चर्य यही है कि सब पाकर भी हर्ष नहीं होता योगी को। हर्ष होता ही नहीं योगी को। तुम आनंद का अर्थ हर्ष मत समझना। हर्ष तो एक ज्वरग्रस्त दशा है। हर्ष भी थकाता है। तुम ज्यादा देर हर्ष में न रह सकोगे। हर्ष में भी तरंगें उठती हैं। जैसे चिंता की तरंगें हैं वैसे हर्ष की तरंगें हैं। जैसे दुख की तरंगें हैं, वैसे हर्ष की तरंगें हैं। :पर्क इतना ही है कि दुख की तरंगों को तुम पसंद करते, सुख की तरंगों को तुम पसंद करते हो-बस। मगर दोनों तरंगें हैं। दोनों में चित्त तो विक्षुब्ध होता है। दोनों में चित्त तो टूट-टूट जाता, खंड-खंड हो जाता है। तुम्हारी अखंडता तो बिखर जाती है। तुम्हारी शांत झील तो खो जाती है। तुम्हारा दर्पण तो ढंक जाता है। तत्र स्थितो योगी न हर्षम उपगच्छति अहो। आश्चर्य प्रभु! जनक कहने लगे अष्टावक्र से कि जिसे पाने के लिए सारा संसार दौड़ा जा रहा है; जन्मों-जन्मों की यात्रा चल रही है ,. अनंत की खोज चल रही है, अनंत से चल रही है-उसे पाकर भी, उस सिंहासन पर विराजमान हो कर भी योगी में हर्ष का भी पता नहीं होता। वह वहा भी साक्षी बना रहता है। उसका साक्षी- भाव वहां भी नहीं खोता। जरा भी तरंग उठती नहीं। आकाश उसका कोरा का कोरा रहता है। न दुख के बादल, न सुख के बादल-बादल घिरते ही नहीं। 'उस पद को जानने वाले के अंतःकरण का स्पर्श वैसे ही पुण्य और पाप के साथ नहीं होता है, जैसे आकाश का संबंध भासता हुआ भी धुएं के साथ नहीं होता।' तुमने देखा, चूल्हा जलाते हो, धुआं उठता है। धुआं आकाश में फैलता है, लेकिन आकाश को
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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