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________________ अगर ऐसा भाव उठता तो फिर शिष्य शिष्य नहीं रह गया। फिर तो शिष्य और गुरु के बीच हजारों -हजारों योजन का फासला हो गया। फिर तो एक-दूसरे की आवाज पहुंचानी असंभव है। फिर तो वे दूसरे अलग लोकों के वासी हो गये। नहीं, न तो ऐसा संदेह उठा कि गुरु को मेरे पर संदेह है, न ऐसा भाव उठा कि गुरु ईर्ष्या से भरा है; न ही जनक ने अपने पक्ष में बोलने की चेष्टा की। नहीं तो साधारणत: जब भी कोई तुमसे कुछ कहे और तुम्हें परीक्षा का संदेह हो तो तुमतत्क्षण सुरक्षा को तत्पर हो जाते हो। तुम तर्क देने लगते हो, विवाद करने लगते हो। तुम हजार सिद्धात खड़े करके बताने लगते हो कि नहीं, मैं ठीक हूं। अगर जनक ने जरा भी कोशिश की होती कि मैं ठीक हूं तो वे गलत हो गये होते। क्योंकि ठीक सिद्ध करने की कोशिश गलत आदमी ही करता है। अगर कोई भी तर्क दिया होता और यह सिद्ध करने की कोशिश की होती बौद्धिक रूप से कि नहीं, आप गलत हैं, मैं ठीक हं तो इस कोशिश में ही गलत हो गये होते। जीवन का गणित बड़ा विरोधाभासी है। यहां जो सिद्ध करने चला है कि मैं ठीक हूं वह गलत सिद्ध हो जायेगा। क्योंकि ठीक हूं, ऐसी सिद्ध करने की आकांक्षा ही तुम्हारे अचेतन में तभी उठती है जब तुम्हें भीतर पता ही होता है कि तुम गलत हो। आत्मरक्षा का भाव भीतर गलत की प्रतीति से पैदा होता है- भय के कारण कि कहीं बात खल तो न जायेगी? कहीं मेरे भीतर का राज जाहिर तो न हो जायेगा? यह तो गुरु पर्दे उठाने लगा! यह तो मुझे नग्न किये दे रहा है! नहीं, ऐसी बात भी नहीं उठी। जनक के ये सूत्र तुम सुनोगे, ये चकित करने वाले सूत्र हैं। परीक्षा कठोर थी, गुरु की आंख तेज तलवार की धार की तरह थी। और गुरु ने जरा भी रहम न किया था। गुरु बड़ा बेरहम था। और गुरु ने चोट पूरी की थी, जितनी की जा सकती थी। और गुरु ने सब दरवाजों से चोट की थी; कहीं से भागने की जगह न छोड़ी थी। पहले भोग के दरवाजे रोक दिये, फिर त्याग का भी दरवाजा रोक दिया। बचने का उपाय न छोड़ा था। गुरु ने खूब कसा था, सब तरफ से कसा था। अगर थोड़ी भी संभावना होती जनक के भीतर अंधकार की, तो इन सूत्रों का जन्म नहीं हो सकता था। कोई अंधकार की संभावना नहीं रह गयी थी। जनक ने ऐसे उत्तर दिया जिसमें आत्मरक्षा का भाव बिलकुल नहीं; ऐसे उत्तर दिया जिसमें तर्क-सरणी है ही नहीं। उत्तर कहना भी ठीक नहीं है। जनक ने जो उत्तर दिया है, वह प्रतिध्वनि है, उत्तर नहीं। गुरु ने दर्पण सामने रख दिया था, जनक ने अपना हृदय सामने रख दिया, उस दर्पण में जो झलका, वे ही ये सूत्र हैं। जरा भी अपने को ओट में छिपाने की कोशिश न की। जरा भी चौंक कर संदेह से न भरे। जरा भी तर्क को बीच में न लाये। जैसे गुरु ने कुछ परीक्षा ही नहीं ली है, इसी तरह जनक ने उत्तर दिये। पहला सूत्र, जनक ने कहा. 'हंत, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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