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________________ लेकिन उस कठोरता में करुणा है। उस कठोरता में जनक का सारा भविष्य है। और यह परीक्षा तत्क्षण ही ली जा सकती है। अगर थोड़ी देर हो जाये और ज्ञान की ताजगी समाप्त हो जाये, तो फिर परीक्षा लेनी कठिन है। इसे थोडा समझने की कोशिश करें। जब ताजा-ताजा ज्ञान है, तब तरल होता है, तब उसे नये रूप दिये जा सकते हैं, नये ढांचे दिये जा सकते हैं। जैसे छोटा-सा अंकर निकलता है, उसे हम कैसे ही झुका लें और किन्हीं दिशाओं में मोड़ दें, कोई भी ढंग दे दें। फिर बड़ा पुराना वृक्ष है, उसे झुकाना मुश्किल हो जाता है-टूट जायेगा, झुकेगा नहीं तो ज्ञान जब पैदा हो, तभी अवसर है। देर हो जाये, आश्चर्य समाप्त हो जाये, तो ज्ञान ठोस हो गया, तरलता खो गयी। वह जो अग्नि पैदा हुई थी वह विलीन हो गयी। वह जो लावा बहा था, वह जम गया, पत्थर हो गया। फिर उसकी परीक्षा बड़ी कठिन है और परीक्षा व्यर्थ भी है। क्योंकि फिर बड़ी तोड़-फोड़ करनी पड़ेगी। इसलिए अष्टावक्र ने एक क्षण भी न खोया। इधर जनक आश्चर्य से भरे हैं, उधर अष्टावक्र ने कसना शुरू कर दिया। जनक ने इन सूत्रों में, आज के सूत्रों में, उत्तर दिया है। जो परीक्षा ली जा रही है उसके प्रति अपने हृदय के भाव प्रकट किये हैं-वे बड़े अनूठे हैं। जनक न तो नाराज हुए जरा भी नाराज हो जाते तो असफल हो जाते; जरा भी उदविग्न हो जाते तो असफल हो जाते। क्या कहते हैं, यह उतना सवाल नहीं है कैसे परीक्षा को लिया? करुणा को पहचाने अष्टावक्र की या कठोरता को? अगर कठोरता को पहचानते और करुणा को भूल जाते तो उसका अर्थ हुआ कि जनक का अहंकार अभी भी मरा नहीं। अहंकार ही कठोरता को पहचानता है। जहां अहंकार खो गया वहां तो सिर्फ महाकरुणा ही ज्ञात होती है। वहां तो गुरु गरदन पर तलवार भी रख दे तो फूलों का हार ही रखा हुआ मालूम होता है। वहा तो गुरु मार भी डाले तो भी शिष्य मरने को तत्पर होता है। क्योंकि गुरु के हाथ से मौत-इससे शुभ और क्या होगा! इससे महाजीवन और क्या हो सकता है! यह तो गुरु की महा अनुकंपा है कि वह गरदन को अलग कर दे, तो तुम पिंजरे से मुक्त हो जाओ। अगर मृत्यु भी दे गुरु और अहंकार न हो, तो करुणा का दर्शन होगा। और अगर अहंकार हो और गुरु महाजीवन भी देता हो, तो भी संदेह उठेंगे। हजार संदेह उठ सकते थे जनक के मन में। पहली तो बात यह उठ सकती थी कि मुझ पर संदेह किया जा रहा है ? पहला तो संदेह यह उठ सकता था कि मुझ पर संदेह किया जा रहा है? अगर ऐसा संदेह उठ आता तो श्रद्धा खो जाती। तो वह जो संवाद चल रहा था गुरु और शिष्य के बीच, रुक जाता, सेतु टूट जाता। दूसरी बात यह उठ सकती थी कि कहीं अष्टावक्र को ईर्ष्या तो नहीं हो गयी? मुझ में यह जो ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ है कहीं अष्टावक्र ईर्ष्यालु तो नहीं हो गये? कहीं ऐसा तो नहीं है कि शिष्य के जीवन में उठती इस क्रांति को देख कर मन में जलन पैदा हुई हो?
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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