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________________ बुद्ध को हिंदुओं ने समझा कि नास्तिक है। नहीं, यह आस्तिकता की आखिरी घोषणा है। इससे ऊपर कोई घोषणा हो नहीं सकती । कठिनाई इसलिए खड़ी होती है कि बुद्धपुरुषों को दोनों ही वक्तव्य देने पड़ते हैं। एक तो वक्तव्य तुम्हारी तरफ से, क्योंकि वहां से यात्रा शुरू होनी है। तुम वहीं से तो चलोगे न जहां तुम खड़े हो ? लेकिन, अगर वक्तव्य यहीं समाप्त हो जाए तो फिर तुम पहुंचोगे कहां? चलते ही थोड़ी रहोगे। कहीं पहुंचना है। तो दूसरा वक्तव्य है। एक साधक के लिए है, एक सिद्ध के लिए। यह जो अष्टावक्र की गीता है, यह सिद्धावस्था का अंतिम वक्तव्य है। इसमें साधना की जगह ही नहीं है। इसमें साधक के लिए कोई बात ही नहीं कही गई है। यह सिद्ध की घोषणा है। यह सिद्ध का गीत है। इसलिए मैंने इसको महागीता कहा है। कृष्ण की गीता में अर्जुन का ध्यान है। अर्जुन की तरफ से बहुत बातें कही गई हैं। धीरे धीरे, धीरे - धीरे अर्जुन को समझा-समझा कर यात्रा पर निकाला गया है। कृष्ण की गीता अर्जुन को समझाने-बुझाने में लगी है कि अर्जुन किसी तरह नाव पर सवार हो जाए, दूसरे तट की तरफ चले। कहीं-कहीं बीच में थोड़े-बहुत दूसरे तट के इशारे हैं, जहां कृष्ण कहते हैं. 'सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज!' सब छोड़, मेरी शरण आ! वहां वे दूसरे तट की घोषणा कर रहे हैं। वहां वे यह नहीं कह रहे हैं कि तू कृष्ण की शरण आ। वहां वे कह रहे हैं, वह जो आत्यंतिक रूप है मैं का, मामेकं, वह जो 'मैं एक!' उस 'मैं एक' में 'तू' भी सम्मिलित है। उसके 'तू बाहर नहीं है। माम एकम् ! उस 'मैं' में सभी सम्मिलित हैं, क्योंकि वह एक ही 'मैं' है। यह बहुत मजे की बात है। तुम्हारा नाम राम किसी का नाम विष्णु, किसी का नाम रहीम, किसी का नाम रहमान। लेकिन तुमने देखा, सब आदमी भीतर अपने को सिर्फ 'मैं' कहते हैं! सब! रहीम भी कहता है 'मैं, राम भी कहता है 'मैं', विष्णु भी कहता है मैं, रहमान भी कहता है 'मैं' 'मैं' मालूम होता है सबके भीतर का सार्वभौम सत्य है। जब कृष्ण कहते, मामेकं शरणं ब्रज, तो वे यह कहते हैं कि इस 'मैं, इस एक 'मैं - यही तो ब्रह्म है, यही तो परम सत्य है - इस एक की शरण आ जा, और सब छोड़! यह दूसरे तट की घोषणा है। लेकिन कहीं-कहीं घोषणाएं हैं। जनक और अष्टावक्र के बीच जो महागीता घटी है, उसमें साधक की बात ही नहीं है; उसमें सिद्ध की ही घोषणा है, उसमें दूसरे तट की ही घोषणा है। वह आत्यंतिक महागीत है। वह उस सिद्धपुरुष का गीत है, जो पहुंच गया जो अपनी मस्ती में उस जगत का गान गा रहा है, स्तुति कर रहा है। इसीलिए तो जनक कह सके अहो अहं नमो मह्यम् ! अरे, आश्चर्य! मेरा मन होता है, मुझको ही नमस्कार कर लूं !' अब इससे ज्यादा उपद्रव की बात सुनी कभी? 'मुझको ही नमस्कार कर लूं अपनी ही पूजा कर लूं? अपनी ही अर्चना कर लूं नैवेद्य चढ़ा दूं - यह दूसरे तट की घोषणा है। जब भी मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं तो दोनों बातें ध्यान में हैं। तुम्हारा अर्जुन होना मैं भूलता
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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