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________________ अयाचित मिलता है परमात्मा । क्योंकि जब तुम याचना नहीं करते, समय मिट जाता है, समय भटकने के सपने मिट जाते हैं। जब तुम याचना नहीं करते, तब तुम ठीक वहां होते हो जहां तुम हो, तुम अपने केंद्र पर होते हो। वहीं परमात्मा का हाथ तुम्हें खोज सकता है और कहीं नहीं खोज सकता। इसलिए अष्टावक्र ने कहा जो जैसा है, उसे वैसा ही जान लेना। जो प्राप्त है, उस प्राप्त में संतुष्ट हो जाना। तो फिर तुम वहीं रहोगे, जहां तुम हो। जो प्राप्त है, उसमें संतुष्ट; और जो जैसा है उसका वैसा ही स्वीकार; न सुख की आकांक्षा, न दुख से बचने का उपाय सुख है तो सुख है, दुख है तो दुख है-तुम साक्षी - मात्र ! इस घड़ी में अयाचित स्वर्ग का राज्य तुम पर बरस उठता है। तुम थोड़े ही स्वर्ग के राज्य में जाते हो, स्वर्ग का राज्य तुम पर बरस जाता है। 'अयाचित गुरु- प्रसाद के रूप में मिल गया। ' और गुरु तो केवल द्वार है अगर तुम गुरु के पास झुके तो तुम द्वार के पास झुके। गुरु कोई व्यक्ति नहीं है और गुरु को भूल कर भी व्यक्ति की तरह सोचना मत, अन्यथा, गुरु को तुमने व्यक्ति सोचा कि दीवाल बना लिया। गुरु व्यक्ति नहीं है। गुरु तो एक घटना है, एक अपूर्व घटना है! उसके पास झुक कर अगर तुमने देखा तो तुम गुरु के आर-पार देख पाओगे। गुरु है ही नहीं - नहीं है, इसीलिए गुरु है। उसके न होने में ही उसका सारा राज है। तुम अगर गुरु में गौर से देखोगे तो तुम पाओगे पारदर्शी है। जैसे काच के आरपार दिखाई पड़ता है। शुद्ध काच ! पता भी नहीं चलता कि बीच में कुछ है - ऐसा गुरु है पारदर्शी व्यक्तित्व। ठोस नहीं है उसके भीतर कुछ भी । अगर तुमने गुरु में गौर से देखा.. और गौर से तो तुम तभी देखोगे जब तुम्हारे भीतर प्रेम और समर्पण होगा, श्रद्धा होगी, भरोसा होगा - तो तुम आंखें गड़ा कर गौर से देखोगे, तुम गुरु पर ध्यान करोगे। तुमने सुनी है गुरु पर ध्यान करने की बात लेकिन अर्थ शायद तुमने कभी न समझा हो । गुरु पर ध्यान करने का मतलब होता है कि अपने गुरु का नाम जपो ? - नहीं। गुरु पर ध्यान करने का मतलब यह नहीं होता कि गुरु का फोटो रख लो और उसको देखो। नहीं, गुरु पर ध्यान करने का अर्थ होता है. गुरु को देखो - और देखो उसके न होने को कि वह है नहीं । देखो उसके भीतर जो शून्य घना हो कर उपस्थित हुआ है, जो अनुपस्थिति उपस्थित हुई है उसे देखो! और उस देखने में, देखने में से अचानक तुम्हें परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाएगी। गुरु द्वार है। जीसस ने कहा है 'मैं हूं द्वारा मैं हूं मार्ग' ठीक कहा है। जिनसे कहा था, वे शिष्य थे, उनके लिए ही कहा था। जो भी तुम्हें गुरु जैसा लगे, जो तुम्हारे मन को भा जाए, फिर उस पर ध्यान करने लगना । इस ध्यान की प्रक्रिया को हम सत्संग कहते रहे हैं। सत्संग का अर्थ होता है गुरु के पास बैठ जाना और चुपचाप बैठे रहना; देखना, झांकना, अपने को शांत करके, विचार-शून्य करके, खाली करके गुरु की मौजूदगी का आनंद लेना, स्वाद लेना! गुरु का स्वाद - सत्संग- धीरे- धीरे चखना! धीरे- धीरे गुरु
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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