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________________ मुक्त हो जाना। निर्वेद की दशा का अर्थ होगा. निर्विचार की दशा, निर्भाव की दशा । तुम्हारे भीतर कोई शास्त्र नहीं, कोई शब्द नहीं, कोई सिद्धांत नहीं - तुम शून्यवत। तुम फिर हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं, जैन नहीं, बौद्ध नहीं - क्योंकि वे सब नाम तो वेदों से मिलते हैं। किसी ने एक वेद को माना है तो वह हिंदू है, किसी ने दूसरे वेद को माना है तो वह जैन है। किसी ने कहा, हमें तो महावीर में ही वेद का अनुभव होता है, तो वह जैन है। और किसी ने कहा, हमें बुद्ध में वेद का अनुभव होता है, तो वह बौद्ध है। लेकिन अष्टावक्र कह रहे हैं, परमज्ञान की अवस्था है, जब तुम्हें सिर्फ अपने में ही वेद का अनुभव हो। बाहर के सब वेदों से मुक्ति - निर्वेद | निर्वेद का अर्थ होगा. बड़ा कुआरापन, जैसे ज्ञान है ही नहीं! इसको अज्ञान भी नहीं कह सकते। क्योंकि बोध परिपूर्ण है। होश पूरा है। इसको अज्ञान नहीं कह सकते। यह बड़ा ज्ञानपूर्ण अज्ञान है। ईसाई फकीरों ने, विशेषकर तरतूलियन ने दो विभाजन किए हैं। उसने दो विभाजन किए हैं मनुष्य के जानने के। एक को वह कहता है इग्नोरेंट नॉलेज, अज्ञानी ज्ञान । और एक को वह कहता है : नोइंग इग्नोरेंस; जानता हुआ अज्ञान। बड़ा अदभुत विभाजन किया है तरतूलियन ने एक तो ऐसा ज्ञान है कि तुम जानते कुछ भी नहीं - खाक भी नही - और फिर भी लगता है खूब जानते हो! शास्त्र कंठस्थ हैं, तोते बन गए हो। मस्तिष्क में सब भरा है, दोहरा सकते हो - ठीक से दोहरा सकते हो। स्मृति तुम्हारी प्रखर है, याददाश्त सुंदर है- तुम दोहरा सकते हो। भाषा का तुम्हें पता है, व्याकरण का तुम्हें पता है- तुम शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ जुटा सकते हो। और फिर भी तुम कुछ नहीं जानते। क्योंकि जो भी तुमने जाना है उसमें तुम्हारा जानना कुछ भी नहीं है; सब उधार है; सब बसा है, मांगा -क्ष है; अपना नहीं है, निज का नहीं है। और जो निज का नहीं है वह कैसा ज्ञान? तो एक तो ज्ञान है, जिसके पीछे अज्ञान छिपा रहता है। जिसको हम पंडित कहते हैं, वह ऐसा ही ज्ञानी है। पंडित यानी पोपट । पंडित यानी तोता । पंडित यानी दोहराता है, जानता नहीं; कह देता है लेकिन क्या कह रहा है, उसे कुछ भी पता नहीं। यंत्र जैसा है, यांत्रिक है - इग्नोरेंट नालेज ! और फिर तरतूलियन कहता है, एक दूसरा आयाम है. नोइंग इग्नोरेंस; जानता हुआ अज्ञान । निर्वेद का वही अर्थ है। निर्वेद का अर्थ है. कुछ भी नहीं जानते - बस इतना ही जानते हैं। और जानना पूरा जागा हुआ है भीतर दीया जल रहा है अपनी प्रखरता में। उस दीये के आसपास वेदों का कोई भी धुआ नहीं है। उस दीये के आसपास कोई छाया भी नहीं है किसी सिद्धांत की । बस, शुद्ध अंतरतम का दीया जल रहा है। उस अंतरतम के दीये के प्रकाश में सब कुछ जाना जाता है, फिर भी जानने का कोई दावा नहीं उठता। उपनिषद कहते हैं. जो कहे मैं जानता हूं जान लेना कि नहीं जानता । सुकरात ने कहा है. जब मैं कुछ-कुछ जानने लगा, तब मुझे पता चला कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। जब कुछ-कुछ जानने लगा, तब पता चला कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं ।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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