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________________ साथ खुद भी जंगल चले गए होते। अगर ऐसा ही था, मर्यादा ही रखनी थी, तो सीता को भी ले जाते जंगल और खुद भी चले गए होते। लेकिन सब कहानियां हैं कि रामराज्य था। दीन थे, दरिद्र थे, दुखी, पीड़ित थे - सब तरह के लोग थे। सब तरह के उपद्रव, सब तरह की जालसाजियां, सब तरह की कूटनीति - राजनीति थी। कब था सुख? अब उससे लोग घबड़ा गए । अतीत का सुख, अतीत के उटोपिआ व्यर्थ हो गए, तो लोगों ईजाद कर लिए। नए पुराणकार हैं मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन, माओ। अब इन्होंने नए पुराण ईजाद कर लिए। ये कहते हैं, भविष्य में होगा । एक बात तो पक्की है, कोई भी नहीं कहता कि अभी है; क्योंकि अभी कहोगे तो दुनिया में कौन मानेगा, कैसे मानेगा? दुख ही दुख दिखाई पड़ता है। अभी तो दुख ही दुख दिखाई पड़ता है। या तो कहो, कभी था या कभी होगा। अब इसमें कुछ विवाद करना मुश्किल हो जाता है-कभी था, कुछ निर्णायक नहीं हैं। मगर शायद अतीत को तो खंडित भी किया जा सकता है, भविष्य को कैसे खंडित करोगे? इसलिए कम्यूनिज्म और भी चालाक है। वह कहता है. भविष्य में होगा; स्वर्णयुग आता है, आने वाला है। तुम कुर्बान होओ उसके लिए, तो आएगा। अष्टावक्र कहते हैं, 'वह कौन काल है, कौन अवस्था है, जिसमें मनुष्य को द्वंद्व न रहा हो ? सुख-दुख न रहे हों त्र नहीं, किसी काल की प्रतीक्षा मत करो, किसी स्थिति की प्रतीक्षा मत करो। एक चैतन्य की क्रांति चाहिए। वह क्रांति कैसे घटित होगी? 'उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष करने वाला मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है। 'यथा प्राप्तवर्ती सिद्धिम! जो मिला है ! जो मिला है, उसमें ही बरतने वाला पुरुष मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। जो है, उसमें ही बरतो। उससे ज्यादा की चाह मत करो। उससे अन्यथा कभी नहीं हुआ है, कभी नहीं होगा। ऐसा ही रहा है। कथा यही की यही है। युग बदलते हैं, आदमी नहीं बदलता । चीजें बदलती हैं, चैतन्य नहीं बदलता । सब समय में ऐसा ही रहा है। यही वारदातें, यही झंझटें, यही उपद्रवकमोबेश - मगर सब ऐसा ही रहा है। 'कौन सिद्धि को उपलब्ध होता है?" अष्टावक्र कहते हैं. जो जैसा है, जो मिला है, जो वर्तमान है - यथा प्राप्तवर्ती- जो है, जो मिला है, उसमें जो संतोष मान लेता कि ठीक है। तो दौड़ पैदा नहीं होती। तो अभीप्सा पैदा नहीं होती, आकांक्षा पैदा नहीं होती, चाह पैदा नहीं होती। संतोष पैदा होता है कि जो है, ठीक है। जो है, इससे अन्यथा हो नहीं सकता, अन्यथा कभी हुआ नहीं, अन्यथा कभी होगा नहीं - इसलिए अन्यथा की चाह नहीं करनी । 'उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष कर लेने वाला मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।'
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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